नमस्कार मित्रों! मैं मनोज कुमार एक बार फिर हाज़िर हूं सोमवार की चर्चा के साथ। कुछ दिन के अंतराल के बाद आया हूं। ऐसी कोई खास व्यस्तता न होते हुए भी कुछ ऐसा होता गया कि इस मंच से चर्चा करने का समय निकाल नहीं पाया।
आज की चर्चा शुरु करते हैं संजय ग्रोवर जी के एक नए ब्लॉग सरल की डायरी से। इस पर इन्होंने एक कथा पोस्ट की है जिसका शीर्षक है सारांश-2 .. एक व्यंग्य कथा के ज़रिए संजय जी व्यवस्था के विकृत चहरे को अपने कलम की साधना से उकेरने का बेहतर प्रयास किया है। कहानी का एक अंस है
बाहर हवा जिस तरफ़ बह रही है, सारे फूल-पत्ते-धूल-धक्कड़ और इंसान उसी दिशा में उड़ रहे हैं। पड़ोसी जो गुण्डों के चलते रोहिनी से कटे-कटे रहते थे, अब गुण्डों के होते रोहिनी के साथ आ खड़े होते हैं। रोहिनी और सोनी, गुण्डों के साथ मिलकर नारी-मुक्ति की लड़ाई को आगे बढ़ातीं हैं। विष्णु आज-कल हर शाम गुण्डों के लिए फूल लाता है।
सारांश -२ हिला देने वाली ‘कथा ‘है। आंधी के साथ निर्जीव बस्तुएं बहती हैं –सूखे .निर्जीव पत्ते और धूल . .संवेदनाएं जब , जिन लोगों की मर जाती हैं ऐसी ही आंधी की प्रतीक्षा करते हैं। संजय ग्रोवर की कहानी से गुज़रना एकदम नए अनुभव से गुज़रना है क्योंकि इसमें यथार्थ इकहरा नहीं है, बल्कि यहां आज के जटिलतम यथार्थ को उघाड़ते अनेक स्तर हैं।
कुमार राधारमण पेश कर रहे हैं एक बेहद ज़रूरी आलेख प्लास्टिक से ज्यादा खतरनाक है तंबाकू! हालाकि सुप्रीम कोर्ट ने गुटखा और पान मसाला की प्लास्टिक पाउच में बिक्री पर प्रतिबंध लगाने का फैसला सुनाया है। फैसला स्वागत योग्य है लेकिन इससे तंबाकू के उपयोग, उससे होने वाली स्वास्थ्य हानि और ब़ढ़ते खतरनाक रोगों में कोई कमी आ जाएगी ऐसा नहीं लगता।
तंबाकू के ब़ढ़ते खतरे और जानलेवा दुष्प्रभावों के बावजूद इससे निपटने की हमारी तैयारी इतनी लचर है कि हम अपनी मौत को देख तो सकते हैं लेकिन उसे टालने की कोशिश नहीं कर सकते। यह मानवीय इतिहास की एक त्रासद घटना ही कही जाएगी कि कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका की सक्रियता के बावजूद स्थिति नहीं संभल रही। क्या तंबाकू के खिलाफ इस जंग में हमें हमारी नीयत ठीक करने की जरूरत नहीं है?
तम्बाकू धीमे जहर के रूप में समाज के सभी वर्ग के लोगों को प्रभावित कर रहा है। तम्बाकू के लिए जनजागरण में मीडिया के साथ ब्लॉगजगत की भी अहम भूमिका हो सकती है। और इसमें राधारमण जी आपने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है इस पोस्ट को लगा कर।
आज की सच्चाई पर एक लडकी के मनोभावों को दर्शाती सुन्दर रचना पेश की है एक बेफिक्र दिखने वाली लड़की अरुण चन्द्र रॉय ने।
वह जो
३० वर्षीया लड़की
हाथ में कॉफ़ी का मग लिए
किसी बड़े कारपोरेट हाउस के
दफ्तर की बालकनी की रेलिंग से
टिकी है बेफिक्री से
वास्तव में
नहीं है उतनी बेफिक्र
जितनी रही है दिख .
भय की कई कई परतें
मस्तिष्क पर जमी हुई हैं
जिनमे देश के आर्थिक विकास के आकड़ो से जुड़े
उसके अपने लक्ष्य हैं
जिन्हें पूरा नहीं किये जाने पर
वही होना है जो होता है
आम घर की चाहरदीवारी में
एक भय है
उन अनचाहे स्पर्शों का
जो होता है
हर बैठक के बाद होने वाले ‘हाई टी’ के साथ
वह बचना चाहती है उनसे
जैसे बचती हैं घरेलू औरते आज भी
एक भय
परछाई की तरह
करता है उसका पीछा
लाख सफाई देने पर भी कि
नहीं है उसका किसी से
कोई अफेयर
तमाम भय के बीच
जब सूख जाते हैं उसके ओठ
एक ब्रांडेड लिप-ग्लोस का लेप चढ़ा
तैयार हो जाती है वह
एक और मीटिंग के लिए
उतनी ही बेफिक्री से.
वास्तव में
जितनी बेफिक्र नहीं है वह.
बहुत ही यथार्थवादी कविता है…..चेहरे के अंदर का छुपा कशमकश बयाँ करती हुई …जिनसे लोंग या तो सचमुच अनभिज्ञ होते हैं या दिखावा करते हैं…जान कर भी ना जानने का..
इस कविता का उत्कर्ष ही यही है कि यह जीवन के ऐसे प्रसंगों से उपजी है जो निहायत गुपचुप ढंग से हमारे आसपास सघन हैं लेकिन हमारे तई उनकी कोई सचेत संज्ञा नहीं बनती। आपने उन प्रसंगों को चेतना की मुख्य धारा में लाकर पाठकों से उनका जुड़ाव स्थापित किया है। नारी मन की गहराई, उसका अन्तर्द्वन्द्व, नारी उत्पीडन, मान-अपमान में समान भावुक मन की उमंगे, संवेदनशीलता, सहिष्णुता आदि पर काव्य में अभिव्यक्ति दी गई है, जो कि वस्तुतः सुलझी हुई वैचारिकता की प्रतीक है।
दोस्त ! प्रेम के लिये वर्ग दृष्टि ज़रूरी है शरद कोकास जी की कविता है जो इस भूमिका के साथ शुरु होती है
प्रेम में सोचने पर भी प्रतिबन्ध..? ऐसा तो कभी देखा न था ..और उस पर संस्कारों की दुहाई ..। और उसका साथ देती हुई पुरानी विचारधारा ..कि प्रेम करो तो अपने वर्ग के भीतर करो.. । लेकिन ऐसा कभी हुआ है ? ठीक है , प्यार के बारे में सोचने पर प्रतिबन्ध है, विद्रोह के बारे में सोचने पर तो नहीं । फिर वह विद्रोह आदिम संस्कारों के खिलाफ हो , दमन के खिलाफ हो या अपनी स्थितियों के खिलाफ़ ..। देखिये ” झील से प्यार करते हुए ” कविता श्रंखला की अंतिम कविता में यह कवि क्या कह रहा है …
मैं झील की मनाही के बावज़ूद
सोचता हूँ उसके बारे में
और सोचता रहूंगा
उस वक़्त तक
जब तक झील
नदी बनकर नहीं बहेगी
और बग़ावत नहीं करेगी
आदिम संस्कारों के खिलाफ ।
इस कविता को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जीवन को उसकी विस्तृति में बूझने का यत्न करने वाले कवि हैं। जो मिल जाए, उसे ही पर्याप्त मान लेने वाले न तो दुनिया के व्याख्याता होते हैं और न ही दुनिया बदलने वाले। दुनिया वे बदलते हैं जो सच को उसके सम्पूर्ण तीखेपन के साथ महसूस करते हैं और उसे बदलने का साहस भी रखते हैं।
Devendra Gehlod ने जख़ीरा पर प्रस्तुत किया है शेख इब्राहीम “ज़ौक”- परिचय।
खाकानी-ए-हिंद शेख इब्राहीम “ज़ौक” सन १७८९ ई. में दिल्ली के एक गरीब सिपाही शेख मुह्ब्ब्द रमजान के घर पैदा हुए | १९ साल कि उम्र में आपने बादशाह अकबर के दरबार में एक कसीदा सुनाया | इस कसीदे का पहला शेर यह है-
जब कि सरतानो-अहद मेहर का ठहरा मसकन,
आबो-ए-लोला हुए नखो-नुमाए-गुलशन |
ग़ालिब भी ज़ौक कि शायरी के प्रसंशक थे बस उन्हें ज़ौक कि बादशाह से निकटता पसंद नहीं थी
कहते है ‘ज़ौक’ आज जहा से गुजार गया,
क्या खूब आदमी था खुदा मग्फारत करे |