लड़कियाँ, अपने आप में एक मुक्कमिल जहाँ होती हैं

कई दिनों से ब्लॉग पढ़ना कम हो गया। लिखना तो औरौ कम। आज भी यही हुआ। एकाध पोस्टें बांची और लोटपोट तहाकर धरने वाले थे कि किसी पोस्ट में अपनी लक्ष्मीबाई कंचन की पोस्ट दिख गई! कल किसी ने इसकी तारीफ़ भी की थी। सोचा इसे भी देख लिया जाये। देखा तो पढ़ भी गये। पढ़ने के बाद कुछ लिखने की सोचते रहे लेकिन डा.अनुराग की बात को दोहराने के अलावा और कुछ लिख न पाये। डा.अनुराग ने कंचन की इस पोस्ट पर टिप्पणी करते हुये लिखा:

तुम जब अपनों के बारे में लिखती है …..तब शायद अपनी बेस्ट फॉर्म में होती है …बतोर राइटर !!!

कंचन की अपनी मां के बारे में लिखी इस पोस्ट से किसी एक अंश को चुनना संभव नहीं है। इस पोस्ट पर अपनी बात कहते हुये नीरज गोस्वामी लिखते हैं:

एक एक शब्द रुक रुक कर पढ़ना पढ़ा है…एक साथ पढ़ ही नहीं पाए हम तो…सब माएं लगता है एक जैसी ही होती हैं…इस भावपूर्ण लेख के लिए क्या कहूँ? प्रशंशा के लिए उचित शब्द मिले तो फिर लौटूंगा…अभी जो मिल रहे हैं वो बहुत हलके लग रहे हैं…
मुस्कुराती रहो….लिखती रहो…ऐसा लेखन विरलों को ही नसीब होता है…

अपने मां के बारे में लिखने के बाद अपनी बात खतम करते हुये जब कंचन ने यह लिखा तो लगा कि शायद यही कहने के लिये उसने पूरा ताना-बाना बुना है:

पता नही ये उम्र थी या बच्चों का प्रेम…! जो अब उन्हे ठीक से नाराज़ भी नही होने देती। वो अपने सारे बच्चों के स्वभाव के साथ एड्जस्ट करने की कोशिश कर रही है शायद …!

और बच्चे ये जानते हैं की हमारे अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है…! कल से बहुत बुरा लग रहा है…! अम्मा के नाराज़ हो जाने जितना ही…!

कि वो ठीक से नाराज़ क्यों नहीं हुई…?

वो ठीक से नाराज क्यों नहीं हुई? पढ़कर अंसार कंबरी की कविता (हालांकि भाव अलग हैं दोनों स्थितियों में) याद आ गयी-

पढ़ सको तो मेरे मन की भाषा पढ़ो
मौन रहने से अच्छा है झुंझला पड़ो।

कंचन की पोस्ट के पहले दो दिन पहले आराधना की पोस्ट पढ़ी थी! अपनी अम्मा को याद करते हुये आराधना ने जो पोस्ट लिखी है वह उनके अद्बुत लेखन का उदाहरण है। उनकी मां उनसे बचपन में बिछुड़ गयी थीं। पिताजी कुछ साल पहले! अपने अम्मा-बाबूजी के बारे में को आत्मीय संस्मरण आराधना ने लिखे हैं वे अद्भुत हैं। ऐसे सहज, आत्मीय संस्मरण बहुत कम पढ़े हैं मैंने। अपनी अम्मा को याद करते हुये उन्होंने लिखा:

आज रुककर सोचती हूँ कि ये बातें तब समझ में आ गयी होतीं, तो शायद मुझे इस तरह पछताना नहीं पड़ता. हाँ, मैं छोटी थी, पर इतनी ज्यादा छोटी भी नहीं थी कि ये बातें ना समझ सकती. ये अपराधबोध मुझे अब भी सताता है कि मैंने अम्मा को कभी वो सम्मान नहीं दिया, जिसकी वो हकदार थीं. मैं हमेशा अपने में ही रहती थी. अम्मा के पास जाने से कतराती थी. उनके आख़िरी दिनों में मैंने कभी उनके पास बैठने की ज़रूरत नहीं समझी, कभी नहीं पूछा कि उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं, कि वो कुछ कहना तो नहीं चाहती हैं, और अब ये अपराधबोध मुझे सताता रहता है, ये ग्लानि मुझे परेशान करती रहती है. शायद मेरी ये सज़ा है कि मैं ज़िंदगी भर इस पछतावे में जीती रहूँ.

पिछले दिनों आराधना से जे एन यू में मिलना हुआ। उनके एक चित्र पर लोगों के कमेंट देखिये और जिसके अंत में अनीता कुमार ने लिखा:

प्रशांत और अराधना ने सारे कमैंट्स हथिया लिये ,बाकियों का क्या, वो सोच रहे होंगे काश हम भी मोटे होते कम से कम लोगों की नजर तो पड़ती ,अब तो कोई कुछ कह ही नहीं रहा…।वैसे अराधना मोटी तो नहीं लग रही, न ही गलफ़ुल्ली।प्रशांत चश्मा बदलवाने का समय आ गया

डा.आराधना के लेखन और उनकी कविताओं पर विस्तार से फ़िर कभी।

डा.अमर कुमार के बारे में जैसा पिछली पोस्ट में डा.अनुराग ने बताया था कि उनका कैंसर का आपरेशन हुआ है और वे इलाहाबाद के कमला नेहरू कैंसर इंस्टीट्यूट में स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं। वे जब इलाहाबाद गये थे तो एक दिन उन्होंने मुझसे ज्ञानजी का नम्बर लिया था। फ़िर मैंने जब उनको फ़ोन किया तो उनके बेटे से पता चला कि उनका आपरेशन होना है। आपरेशन होने के बाद उनकी पंडिताइन से उनका हाल-चाल लिया तो उन्होंने बताया कि सब कुछ ठीक से हो गया। समय रहते पता चल गया और तुरंत आपरेशन हो गया। आज उनके स्वास्थ्य के बारे में जानकारी करने पर पता चला कि आज अभी उनके टांके कट रहे हैं और चार-पांच दिन बाद उनकी अस्पताल से छुट्टी हो जाने की संभावना है। आशा है कि वे जल्दी ही हमारे साथ होंगे।

डा.अमर कुमार अपनी टिप्पणियों में मुखर होते रहे हैं। ब्लॉगिंग में माडरेशन के सख्त खिलाफ़त करने वाले डा.अमर कुमार ने कुछ नायाब पोस्टें लिखी हैं। अपने बारे में बयान जारी करते हुये डा.साहब के काफ़ी विद कुश में कहा :

अपने को अभी तक डिस्कवर करने की मश्शकत में हूँ, बड़ा दुरूह है अभी कुछ बताना । एक छोटे उनींदे शहर के चिकित्सक को यहाँ से आकाश का जितना भी टुकड़ा दिख पाता है, उसी के कुछ रंग साझी करने की तलब यहाँ मेरे मौज़ूद होने का सबब है । साहित्य मेरा व्यसन है और संवेदनायें मेरी पूँजी ! कुल मिला कर एक बेचैन आत्मा… और कुछ ?

उनके बारे में मेरा कहना था:

डा.अमर कुमार ने एक ही लेख नारी – नितम्बों तक की अंतर्यात्रा उनके लेखन को यादगार बताने के लिये काफ़ी है। लेकिन लफ़ड़ा यह है कि उन्होंने ऐसे लेख कम लिखे। ब्लागरों से लफ़ड़ों की जसदेव सिंह टाइप शानदार कमेंट्री काफ़ी की। रात को दो-तीन बजे के बीच पोस्ट लिखने वाले डा.अमर कुमार गजब के टिप्पणीकार हैं। कभी मुंह देखी टिप्पणी नहीं करते। सच को सच कहने का हमेशा प्रयास करते हैं । अब यह अलग बात है कि अक्सर यह पता लगाना मुश्किल हो जाता कि डा.अमर कुमार कह क्या रहे हैं। ऐसे में सच अबूझा रह जाता है। खासकर चिट्ठाचर्चा के मामले में उनके रहते यह खतरा कम रह जाता है कि इसका नोटिस नहीं लिया जा रहा। वे हमेशा चर्चाकारों की क्लास लिया करते हैं।

लिखना उनका नियमित रूप से अनियमित है। एच.टी.एम.एल. सीखकर अपने ब्लाग को जिस तरह इतना खूबसूरत बनाये हैं उससे तो लगता है कि उनके अन्दर एक खूबसूरत स्त्री की सौन्दर्य चेतना विद्यमान है जो उनसे उनके ब्लाग निरंतर श्रंगार करवाती रहती है।

डा.अमर कुमार की उपस्थिति ब्लाग जगत के लिये जरूरी उपस्थिति है!

डा.अमर कुमार के लेख का एक अंश देखिये:

मेरे हिंदी आचार्य जी, जिनको हमलोग अचार-जी भी पुकारते थे, पंडित सुंदरलाल शुक्ला ( यहाँ भी एक शुक्ला ! ) ने मुझमें साहित्यकार का कीड़ा होने की संभावनायें देख कर, इतना रगड़ना इतना रगड़ना आरंभ कर दिया कि आज तक इंगला-पिंगला, मात्रा-पाई, साठिका-बत्तीसा के इर्द गिर्द जाने से भी भय होता है । निराला की ‘ अबे सुन बे गुलाब ‘जैसी अतुकांत में भी वह ऎसा तुक ढु़ढ़वाते कि मुझे धूप में मुर्गा बन कर पीठ पर दो दो गुम्मे वहन करना कुछ अधिक सहल लगता । बाद में तो खूब जली हुई, झावाँ बनी तीन चार ईंटें मैं स्वयं ही चुन कर, क्लास के छप्पर के पीछे एक गुप्त कोने में रखता था । ये ईंटें हल्की हुआ करती हैं, और घर पर गृहकार्य करने में समय खराब न कर उतने समय तक मुर्गा बने रहने का अभ्यास मैं पर्याप्त रूप से कर चुका था, सो कोई वांदाइच नहीं के भाव से नाम पुकारे जाने पर लपक कर दोनों हाथ में गुम्मे लेकर उपस्थित हो जाता । ज़ेब में साप्ताहिक हिन्दुस्तान का एक बड़ा पन्ना मोड़कर रखता, जिसे बिछा कर कोनों को पैर के अंगूठे से दबाकर मुर्गा बन जाता, और झुका हुआ पढ़ता रहता । अब बताइये ब्लागर पर ऎसी साहित्यसाधना कितने जनों ने की होगी ?

डा.अमर कुमार जल्द ही हमारे बीच फ़िर होंगे यह मुझे आशा है। विश्वास है। उनके स्वास्थ्य के लिये मंगलकामनायें।

इस बीच हिन्दी के लोकप्रिय कवि, कथाकार उदयप्रकाश जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। देर से, बहुत देर मिला लेकिन एकदम दुरस्त मिला। उनके बारे में लिखते हुये विनीतकुमार का लेख देखिये! कबाड़खाने पर भी उनके बारे में लिखा

लेख-सत्ता,शोर बचे न बचे ! शब्द ज़रूर बचेगा देखिये। इस लेख में उदय प्रकाश के बारे में लिखते हुये संजय पटेल लिखते हैं:

उदयप्रकाश ने मुखरता से कहा कि कविता,संगीत,कहानी,उपन्यास,चित्रकारी,फ़ोटोग्राफ़ी और शिल्पकला का आपस में एक रूहानी रिश्ता है और जो लेखक,कवि या कलाकार इन रिश्तों की गंध से अपरिचित है वह कभी क़ामयाब नहीं हो सकता. उदयप्रकाश ने कहा कि पाठक के ह्रदय में जगह बनाना सबसे मुश्किल काम है क्योंकि वह बड़ी परीक्षा लेकर स्वीकृति देता है. उन्होंने इस बात पर खेद जताया कि पूरा बाज़ार एक भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा है. सच आज गुम है. दु:ख यह है कि भ्रष्टाचार अब बेफ़िक्र होकर सत्ता के गलियारों की सैर कर रहा है. उन्होंने कहा कि तस्वीर तब बदल सकती है जब नागरिक बैख़ौफ़ होकर आवाज़ उठाए. उदयप्रकाश ने कहा कि फ़्रांस के राष्ट्रपति सरकोज़ी कॉरपोरेट्स के साथ एक कप कॉफ़ी पीते हैं तो उन्हें माफ़ी मांगनी पड़ती है जबकि हमारे यहाँ की राजनीति में क्या क्या नहीं होता फ़िर भी सब बेशरम से घूमते हैं.उदयप्रकाश साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिलने से प्रसन्न भी थे और संतुष्ट भी. तीन दशक से ज़्यादा समय से क़लम चला रहे इस घूमंतु लेखक से बात करना वैसा ही सुक़ून देता है जैसा ठिठुरन देती ठंड में धूप का आसरा मिल जाना.

उदयप्रकाश का ब्लॉग यहां देखें।

फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर कभी।

अपडेट बजरिये ज्ञानजी:

डाक्टर अमर कुमार बहुत ठीक से ठीक हो रहे हैं। बोलने की मनाही है, जो शायद कुछ महीने चले (बकौल उनके)। बाकी, बतैर सम्प्रेषक वे कलम कापी ले कर भिड़े थे। और बोलने बाले से बेहतर अभिव्यक्त कर पा रहे थे।
पूरा परिवार बहुत सज्जन था। डाक्टर साहब समेत।

मेरी पसन्द

लड़कियाँ,
तितली सी होती है
जहाँ रहती है रंग भरती हैं
चाहे चौराहे हो या गलियाँ
फ़ुदकती रहती हैं आंगन में
धमाचौकड़ी करती चिडियों सी

लड़कियाँ,
टुईयाँ सी होती है
दिन भर बस बोलती रहती हैं
पतंग सी होती हैं
जब तक डोर से बंधी होती हैं
डोलती रहती हैं इधर उधर
फ़िर उतर आती हैं हौले से

लड़कियाँ,
खुश्बू की तरह होती हैं
जहाँ रहती हैं महकती रहती है
उधार की तरह होती हैं
जब तक रह्ती हैं घर भरा लगता है
वरना खाली ज़ेब सा

लड़्कियाँ,
सुबह के ख्वाब सी होती हैं
जी चाहता हैं आँखों में बसी रहे
हरदम और लुभाती रहे
मुस्कुराहट सी होती हैं
सजी रह्ती हैं होठों पर

लड़कियाँ
आँसूओं की तरह होती हैं
बसी रहती हैं पलकों में
जरा सा कुछ हुआ नही की छलक पड़ती हैं
सड़कों पर दौड़ती जिन्दगी होती हैं
वो शायद घर से बाहर नही निकले तो
बेरंगी हो जाये हैं दुनियाँ
या रंग ही गुम हो जाये
लड़कियाँ,
अपने आप में
एक मुक्कमिल जहाँ होती हैं

मुकेश कुमार तिवारी

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