लिखते रहना एक अच्छी जिद है ….किताबी पन्नो के बरक्स कंप्यूटर भी बड़ी सहूलियत से किसी भी वक़्त अपने स्क्रीन पर बहुत कुछ अच्छा लिखा दिखा सकता है .टेक्नो लोजी ने पाठको को न केवल बढाया है ..अलबत्ता परस्पर संवाद की एक गुंजाइश को पुख्ता भी किया है…संस्मरण लिखना दरअसल अपने तजुरबो को आज में देखना है ….एक अच्छा संस्मरण लिखने वाला संस्मरणों की न केवल अंगुली पकड़ कर चलता है … बल्कि हमें भी उन गलियों के भीतर ले चलता है ..नवीन नैथानी जी ने लिखो यहाँ वहां पर ऐसे कई यादो को दोहराना शुरू किया है ….शीर्षक ब्लॉग से ली गयी कुछ पंक्तियों से लिया गया है
खैर एक रोज दर्द साह्ब के साथ अजब वाकया पेश आया. वे टिप-टाप मे बैठे थे कि दो महिलायें एक सूर्ख गुलाब लिये दर्द साहब को पूछती चली आयीं.थोडा सकुचाते ,कुछ हिचकिचाते हुए उन्होंने वह गुलाब कुबूल किया – मेज के किनारे रखा और प्रदीप गुप्ता को उधार की चाय का आर्डर दिया.दर्द साहब सूर्ख गुलाब का सबब समझ नहीं पा रहे थे .तभी वहां हरजीत का आगमन हुआ.उसने मंजर देखा , प्रदीप गुप्ता से कुछ बात की और फिर उस सार्वजनिक पोस्टर -स्थल से अवधेश की पैरोडी हटाकर एक नया शे’र चस्पां कर दिया
शराबो- जाम के इस दर्जः वो करीब हुए
जो दर्द भोगपुरी थे गटर-नसीब हुए
इसे पढ़्कर दर्द भोगपुरी ने ,जाहिर है, राहत की सांस ली
कुछ ऐसी ही बैचेनियो को एक केलिडोस्कोप में हथकड़ रखता है …..इस बैचेनी में याद आते कुछ किरदार भी है ….यहाँ नेरेटर संस्मरण का हिस्सा भी बनता है …उसके फ्लो में .हस्तक्षेप नहीं करता …मसलन
दो महीने तक मैं रोज शाम को उनके पास जाता था. वे मुझसे पंजा, पांव, आँख, भोहें, कोहनी जैसे शरीर के अंग बनवाते रहे. उन्होंने अगले पायदान पर मुझे एक किताब दी जिसमें सब नंगे स्केच थे. उनको देखना और फिर उन पर काम करना बेहद मुश्किल था. मैं तब तक नौवीं कक्षा में आ चुका था और मेरी जिज्ञासाएं चरम पर थी. मैंने कुछ और महीने फिगर पर काम किया. वे मुझसे खुश तो होते लेकिन मुझमे ऐसी प्रतिभा नहीं देख पाए थे कि मेरे जैसा शिष्य पाकर खुद को भाग्यशाली समझ सकें. एक दिन मैंने कहा “मुझसे पेंसिलें खो जाती है शायद मुझे इनसे प्यार नहीं है.” उन्होंने पीक से मुंह हल्का करके कहा “बेटा ये राज बब्बर फाइन आर्ट में मेरा क्लासफेलो था, इसने लिखित पर्चे नक़ल करके पास किये है मगर देखना एक दिन फिर से ये पेन्सिल जरुर पकड़ेगा.”
पूरी पोस्ट पढियेगा ….ओर इस नेरेशन में डूब जाइयेगा……..
सागर अप्रत्याशित लेखक है ….थोड़े विद्रोही तेवर वाले कवि……उनकी कविता मुझे कई बार हतप्रभ करती है …..नंगे यथार्थ से उन्हें रोमानटीसाइज़ उनका फेवरेट शगल है ….उनकी कई प्रतिक्रियाये कई रेखाचित्रो के सामान्तर चलती है .कई बार आगे फलांग जाती है …बतोर कवि .वे मुझे कभी हड़बड़ी में नहीं दिखते … उनकी बैचेनिया बनी रहे ….
मसलन अपनी कविता पिता : मुंह फेरे हुए एक स्कूटर
में वे कुछ यूँ दिखते है
आओ ग्लास में उडेलें थोड़ी सी शराब
कि अब तो तुम्हारे शर्ट भी मुझको होने लगे हैं, जूते भी
कि पड़ोस का बच्चा मुझे अंकल कह बुलाने लगा है
तुम खोलो ना राज़
कि किस लोहे ने तुम्हारी तर्जनी खायी थी
कि दादी के बाद वो कौन है जीवित गवाह
जिसने तुम्हें हँसते देखा था आखिरी बार
(अब तुम्हारा गिरेबान पकड़ कर पूछता हूँ)
बाकी साल तो रहने दिया
पर मुंह फेरने से पहले यह तो बता दो
कि पचहत्तर, चौरासी, इक्यानवे, सत्तानवे और निन्यानवे में कौन – कौन सा इंजन तुमपे गुज़रा ?
आओ ग्लास में उडेलें थोड़ी सी शराब
और करें बातें ऐसी कि जिससे खौल कर गिर जाए शराब.
एक ओर कवि निखिल आनंद गिरि भी अपनी विशिष्ट मौलिकता के संग संबंधो के कई जटिल व्याकरणों पर अपनी माइक्रोस्कोप धरते है ….ओर आहिस्ता से आदमी के भीतर सेंध लगाते है .उनकी कविता “रात चाँद ओर आलपिन ‘..ऐसे एक शोट का क्लोज़ अप लेती है
इस कविता को पढ़ते हुए आप जान जाते है ….स्त्री को समझने का एक चौकन्नापन उनके भीतर मौजूद है ……
अभी बाक़ी हैं रात के कई पहर,
अभी नहीं आया है सही वक्त
थकान के साथ नींद में बतियाने का….
उसने बर्तन रख दिए हैं किचन में,
धो-पोंछ कर…
(आ रही है आवाज़….)
अब वो मां के घुटनों पर करेगी मालिश,
जब तक मां को नींद न आ जाए..
अच्छी बहू को मारनी पड़ती हैं इच्छाएं…
चांदनी रातों में भी…
कमरे में दो बार पढ़ा जा चुका है अखबार….
उफ्फ! ये चांदनी, तन्हाई और ऊब…
पत्नी आती है दबे पांव,
कि कहीं सो न गए हों परमेश्वर…
पति सोया नहीं है,
तिरछी आंखों से कर रहा है इंतज़ार,
कि चांदनी भर जाएगी बांहों में….
थोड़ी देर में..
वो मुंह से पसीना पोंछती है,
खोलती है जूड़े के पेंच,
एक आलपिन फंस गई है कहीं,
वो जैसे-तैसे छुड़ाती है सब गांठें
और देखती है पति सो चुका है..
अब चुभी है आलपिन चांदनी में…
ये रात दर्द से बिलबिला उठी है….
सुबह जब अलार्म से उठेगा पति,
और पत्नी बनाकर लाएगी चाय,
रखेगी बैग में टिफिन (और उम्मीद)
एक मुस्कुराहट का भी वक्त नहीं होगा…
फिर भी, उसे रुकना है एक पल को,
इसलिए नहीं कि निहार रही है पत्नी,
खुल गए हैं फीते, चौखट पर..
वो झुंझला कर बांधेगा जूते…
और पत्नी को देखे बगैर,
भाग जाएगा धुआं फांकने..
आप कहते हैं शादी स्वर्ग है…
मैं कहता हूं जूता ज़रूरी है…
और रात में आलपिन…
किशोर .……वे रचनात्मक निर्वासन की देहरी पर नहीं बैठते ..लिखकर अपने आप को एक्सटेंड करते है ..हिंदी ब्लॉग में उन जैसे लेखको की उपस्थिति को मै आवश्यक मानता हूँ ..जिनके विम्ब उनके भीतरी शोर को ख़ामोशी से अभिव्यक्त करते है
चौराहा भीड़ से ऊबा हुआ था. चिल्लपों से थक कर उसने अपने कानों में घने बाल उगा लिए थे. वह किसी स्थिर व्हेल मछली की तरह था. सम्भव है कि उसे सब रास्तों का सच मालूम हो गया था और वह सन्यस्थ जीवन जी रहा था. इस सन्यास में देह को कष्ट दिये जाने का भाव नहीं दिखाई पड़ता था. कई बार ऐसा लगता था कि चौराहा वलय में घूर्णन कर रहे मसखरों और कमसिन लड़कियों की कलाबाजियां देखने जैसा जीवन जी रहा था. उसको किसी नवीन और अप्रत्याशित घटना की आशा नहीं थी. सीढ़ियों को अपनी ओर आते देख कर भी कौतुहल नहीं जगा.
चौराहे ने एक लम्बी साँस भरी और खुद का पेट सीने में छुपा लिया. चौराहों और सीढ़ियों का भी सदियों पुराना रिश्ता था. चौराहों के माथे को खुजाने के लिए कनखजूरे इन्हीं सीढ़ियों पर चढ़ कर आया करते थे.
चौराहे ने पीपल की ओर देखा. पीपल ने दलदल के पानी सोखू युक्लीप्टिस पेड़ों की ओर देखा. युक्लीप्टिस ने कौवों के पांखों में खुजली की. कौवों ने देखा कि बिना सीढ़ियों की छतें बहुत सुरक्षित दिखने लगी थी. मुंडेरों तक पहुँचने के लिए अब आदमी को आदमी के ऊपर खड़ा होना होगा.
कहते है भीड़ की स्मरण शक्ति कम होती है .ओर भारतीय समाज एक भीड़ जैसा ही है ….हम अपने जमीर के मैले होने का अक्सर जिक्र करते है पर उसे दुरस्त करने का प्रयास नहीं…..हम दरअसल अपनी सहूलियत से असूलो को चुनने वाले समाज की ओर बढ़ रहे है ….जहाँ विरोध सैदान्तिक नहीं होता है …व्यक्ति ओर उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को देख कर तय किया जाता है .…राडिया टेप काण्ड ओर विकिलीक्स के खुलासे आहिस्ता आहिस्ता धुंधले पड़ने लगेगे … सच के भी कई मुगालते होते है …..प्रसून वाजपेयी उन्ही मुगालतो पर बात करते है
असल में राडिया के फोन टैप से सामने आये सच ने पहली बार बडा सवाल यही खड़ा किया है कि अपराध का पैमाना देश में होना क्या चाहिये। लोकतंत्र का चौथा खम्भा, जिसकी पहचान ही ईमानदारी और भरोसे पर टिकी है उसके एथिक्स क्या बदल चुके हैं। या फिर विकास की जो अर्थव्यवस्था कल तक करोड़ों का सवाल खड़ा करती थी अगर अब वह सूचना तकनालाजी , खनन या स्पेक्ट्रम के जरीये अरबो-खरबो का खेल सिर्फ एक कागज के एनओसी के जरीये हो जाता है तो क्या लाईसेंस से आगे महालाइसेंस का यह दौर है। लेकिन इन सबसे बड़ा सवाल यही है कि इस तमाम सवालो पर फैसला लेगा कौन। लोकतंत्र के आइने में यह कहा जा सकता है कि न्यायपालिका और संसद दोनो को मिलकर कर यह फैसला लेना होगा। लेकिन इसी दौर में जरा भ्रष्टाचार के सवाल पर न्यायापालिका और संसद की स्थिति देखें। देश के सीवीसी पर सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल उठाया कि भ्रष्टाचार का कोई आरोपी भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाले पद सीवीसी पर कैसे नियुक्त हो सकता है। तब एटार्नी जनरल का जबाव यही आया कि ऐसे में तो न्यायधिशो की नियुक्ति पर भी सवाल उठ सकते हैं। क्योकि ऐसे किसी को खोजना मुश्किल है जिसका दामन पूरी तरह पाक-साफ हो। वही संसद में 198 सांसद ऐसे हैं, जिनपर भ्रष्टाचार के आरोप बकायदा दर्ज हैं और देश के विधानसभाओ में 2198 विधायक ऐसे हैं, जो भ्रष्टाचार के आरोपी हैं। जबकि छह राज्यो के मुख्यमंत्री और तीन प्रमुख पार्टियो के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और मायावती ऐसी हैं, जिन पर आय से ज्यादा संपत्ति का मामला चल रहा है। वहीं लोकतंत्र के आईने में इन सब पर फैसला लेने में मदद एक भूमिका मीडिया की भी है। लेकिन मीडिया निगरानी की जगह अगर सत्ता और कारपोरेट के बीच फिक्सर की भूमिका में आ जाये या फिर अपनी अपनी जरुरत के मुताबिक अपना अपना लाभ बनाने में लग जाये तो सवाल खड़ा कहां होगा कि निगरानी भी कही सौदेबाजी के दायरे में नहीं आ गई। यानी लोकतंत्र के खम्भे ही अपनी भूमिका की सौदेबाजी करने में जुट जाये और इस सौदेबाजी को ही मुख्यधारा मान लिया जाये तो क्या होगा।
चलते चलते .
हमारी नैतिक बैचेनी अपनी लक्ष्मण रेखा बड़ी चतुराई से चुनती है …..हम उन्ही बहसों को हाईलाईट करते बुद्धिजीवियों के तर्कों को सुनते है जिन पर सार्वजानिक सहमति बन सके …सवाल फफूंद लगे इस लोकतंत्र पर रेग्मार्क कर साफ़ करने का नहीं ….सवाल ये भी है के क्या कर्तव्यो को याद दिलाने की जिम्मेवारी इस देश में सिर्फ कोर्ट की है ?
क्या हम वाकई एक आदर्श विहीन समाज की ओर बढ़ रहे है ….? सोच कर देखिये
http://www.youtube.com/v/E08xaBem240?fs=1&hl=en_US&color1=0x234900&color2=0x4e9e00
हम सभी को आत्म निरीक्षण की आवश्यकता है ….मीडिया को ही नहीं…आखिर समाज के विकास की भागेदारी सामूहिक ही होती है ..
http://www.youtube.com/v/FuI62uvk34I?fs=1&hl=en_US
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