जावेद अख्तर ने कहा था” मुश्किल हालात में जीना भी एक आर्ट है” ….पर सच पूछिए तो बहुत अच्छे हालात में भी जीना भी एक आर्ट है ….हर कोई यश को नहीं संभाल सकता… .हर कोई सचिन नहीं होता….यश की लालसा का वायरस संक्रामक होता है ……न उम्र देखता है .न डिग्री…. बहुतेरे उम्र दराज विद्वानों को इसकी लपेट में देखा है ….दरअसल हम हिन्दुस्तानी अपने आप में विरोधात्मक चरित्र होते है …..गुप्त दान भी करते है पर चाहते है उसकी प्रशंसा सार्वजनिक की जाये …कमरे के भीतर बैठकर समाजवाद की बौद्धिक उल्टिया करेगे ओर बाहर रिक्शे वाले से पञ्च रुपये पर लड़ेगे ……स्त्री विमर्श पर एक धांसू कविता लिखते है पर पत्नी के साथ जोइंट अकाउंट रखते है ….ओर उसका डेबिट कार्ड भी …
लेखक इससे इतर नहीं है .कभी कभी वो भी अपने भीतर चहलकदमी करता है ….अपने आप को खंगालता है ….मनीषा कुलश्रेष्ठ ऐसे ही अपनी डायरी के कुछ पन्ने सबद पर खोलती है
खुद को औरों से अधिक बुद्धिमान दिखाने की इच्छा, चर्चित होने और मरने के बाद याद रखे जाने की चाह जैसी बहुत – सी वजहें होती हैं लिखने के पीछे. शब्दों से ही समाज बदल डालने और लोगों की जिन्दगियों पर असर डालने जैसे कई – कई मुगालते होते हैं लिखने वालों को. मैं इन सारे मुगालतों से थोडा – थोडा ग्रस्त जरूर हूं पर मुझे पता है कि ये गंभीर वजहें नहीं हैं मेरे लिखने की.
पूरा लेख पढ़िए यक़ीनन आप लेखिका की स्वीकारोत्ती में ईमानदारी महसूस करेगी .
मुझे आज के दिनों की तुलना अपने बचपन से नहीं करनी चाहिए. समय के आरोहण ने हमें अलग मक़ाम पर लाकर खड़ा कर दिया है लेकिन जो नुकसान हो रहा है वह द्रुतगामी है और संवेदनशील है. मैं बाइक पर पीछे बैठे बेटे से पूछता हूँ, छोटे सरकार कभी खेत में हरे सिट्टों को छू कर देखा है ? वह प्रतिप्रश्न करता है, कैसा लगेगा ? मैं चुप कि एक अपराधबोध भीतर कुनमुनाता है. बच्चों को दिये गए लम्बे भाषण याद आते हैं. ये नहीं करना, वो नहीं करना मगर करना क्या ? इसका हमको भी नहीं पता… ऐसे ही सोच भागी चली जा रही थी और दूर तक काले – पीले सिट्टों से झूमते हुए खेत हमारे साथ भाग रहे थे.
प्रत्यक्षा जी का लिखा कोर्स की उस किताब को पढने जैसा है जो हर बार पढने में अपने नए अर्थ खोलती है मसलन…….
हमारे दायरे में जितने लोग आये हम उतने उतने भी हुये ,उनके देखे जितने हुये ,उनके देखे के बाहर भी हुये और उनके देखने में खुद को देखते , और भी हुये । तो ऐसे हम हुये कि एक न हुये , जाने कितने हुये
मसलन
होना कितनी तकलीफ को कँधों पर टिकाये घूमना है । सोते हुये सपने देखना है और उससे भी ज़्यादा जागे हुये देखना है ।
या
उसका कुछ कहना लाजिमी नहीं था । सिर्फ सुनना लाजिमी था । शायद सुनना भी नहीं था । सिर्फ होना ज़रूरी था । ठंडी रात में किसी का होना सिर्फ ।
यक़ीनन!!!
इन तमाम ख्यालो ओर सोचो से अलग एक ओर बहस कही चल रही है ……बेमतलब की .….
उसकी आवश्यकता क्यों है .विनीत इस पर रौशनी डालते है ……
आप भी सोचेगें कि इन सिरफिरों को सिनेमा की अच्छी ठरक चढ़ी है। जहां पूरा देश राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मसले पर आनेवाले फैसले को लेकर सुलगने-बुझने की स्थिति में है, सब जगह चौक-चौबंद लगा दिए गए हैं, दूसरी तरफ दिल्ली का हर शख्स बाढ़ और कॉमनवेल्थ की खबरों के बीच डूब-उतर रहा है। ऐसा कैसे हो सकता है कि जब ये देश दो सबसे बड़े मुद्दों के बीच अटक सा गया है, ये लोग उससे मुक्ति सिनेमा में जाकर खोज रहे हैं। जिस सूरजकुंड के रिसॉर्टों के बीच लोग चिल्ल होने आते हैं, वो सिनेमा के पचड़ों को लेकर क्यों चले गए? मौजूदा हालातों से अगर ये पलायन है तो फिर ये योग और आध्यात्म की गोद में गिरने के बजाय सिनेमा के बीच जाकर क्यों गिरे? इसे आप खास तरीके का बनता समाज कहें, तारीखों का संयोग या फिर देश की राजनीति और खेल की तरह ही सिनेमा का भी उतना ही जरुरी करार दिया जाना, ये आप तय करें। फिलहाल…
पर यकीन मानिए सिनेमा के कई एडिक्ट्स है.. जो इन सरफिरो की बात सुनना चाहते है
जयदीप अपना दर्द ओर लिमिटेशन कुछ यूं ब्यान करते है
लेकिन क्या, इस देश में सिर्फ पल्प फिक्शन बनकर रहेगा, क्या लिटरेचर पर कोई फिल्म नहीं बन पाएगी। जिनके पास पैसा है उनके पास स्पिरिट क्यों नहीं है कि कुछ अलग प्रोजेक्ट पर काम करें। रिलांयस के पास पैसा है, इतना बड़ा वेंचर है लेकिन वो चींटी को भी बुरी तरह पीस कर खा जाएंगे। ये बहुत बुरी चीज है इनके पास इतना पैसा है लेकिन सबको पीस डालने की जो प्रवृति हैवो चिंताजनक है।
आगे वे इसे विस्तार देते है
हम कम्पीलिटली कॉलोनियलाइज हैं, पहले हम इतने नहीं थे। ये जो क्रिएटिविटी को लेकर आत्मविश्वास की कमी है, वो हमारे यहां साफ तौर पर दिखाई देती है। कॉलोनियलाइज हैं, हम खुद नहीं बना सकते हैं। एक कॉम्प्लेक्स है कि हम नहीं कर सकते, इसलिए हम कहानियां नहीं दे पाते। जिनके पास पैसे हैं वो हम पर हंसते हैं। जिस तरीके से वो पेश आते हैं बेसिकली वो आपको-हमें गदहे समझते हैं।
फिर एक ओर “भ्रम ‘से वो हमें बाहर निकालते है
बहुत लोग समझते हैं कि नई फिल्म आ रही है लेकिन ये सिनेमा के दिखाए जाने के तरीके के हिसाब से अलग लग रहा है, कंटेंट के लिहाज से बहुत नया और अलग नहीं है। उस इन्टेक्चुअल कोलोनियलिज्म से पूरी तरह बाहर नहीं निकल पा रहे हैं
ये बहस बहुत से सवालों को उठाती है ओर वही जवाब ढूँढने की कोशिशे करती है ….सफल या असफल ये नहीं पता पर यकीन मानिए गर आप सिनेमा को जीने वाले इन्सान है आपसे गुजारिश है इस बहस को पूरा पढियेगा …..
कुमार मुकुल के परिचय में कुछ यूँ लिखा है ….कुमार मुकुल ने एक आशातीत विकास किया है इन पांच-छ: वर्षों में-संघर्ष बहुत लोग करते हैं पर कवि नहीं हो पाते। रिल्के का केदार जी ने अनुवाद किया है-निश्चय ही मुकुल ने पढा होगा-तो उनके यहां जो भोलापन है उससे भी कविता लिखी जा सकती है। वे लिखते हैं – ईश्वर मैं तुम्हारा जलपात्र हूं, मैं टूटूंगा , तो तुम पानी कैसे पीओगे…। तो जो एक विस्मयबोध होता है कवियों में वह मुकुल में दिखता है – कुमार के साथ अच्छी बात यह है कि – वे किसी टाइप या उद्देश्य को लेकर नहीं चलते। उनके यहां ऐसी सहज और लोकतांत्रिक विविधता है-जैसे एक सहज नन्हा बच्चा। वे इतने सेंसुअस हैं-मसृण। एक डेमोक्रेटिक डाइवर्सिटी है इनमें।
उनकी कविताओ का संग्रह इस ब्लॉग पर है ….
मनोविनोदिनी
खाना खा लिया
कवि महोदय ने
सतरह नदियों के पार से
आता है एक स्वर
चैट बाक्स पर
छलकता सा
हां
खा लिया…
आपने खाया
हां … खाया
और क्या किया दिन भर आज
आज…
सोया और पढा … पढा और सोया
खूब..
फिर हंसने का चिन्ह आता ह
तैरता सा
और क्या किया
और..
माने सीखे तुम के
मतलब…
मतलब … तू और मैं तुम
हा हा
पागल…
यह क्या हुआ
यह दूसरा माने हुआ
तू और मैं का
दूसरा माने
वाह
खूब
हा हा
हा हा हा
चलते चलते : जिंदगी के बहुत सारे ऐसे दिन है जिन्हें स्पेम करने की इच्छा होती है …..

we salute you, BOY…! Rest in peace…!!