आमीर खान की आने वाली फिल्म धोबीघाट को एक समस्या आन पड़ी है और वो ये कि धोबियों की यूनियन को फिल्म के नाम में धोबी नाम का होना पसंद नही आ रहा, अपने अपने लॉजिक देकर कानून की सहायता लेकर फिल्म के नाम से धोबी शब्द हटाने की तैयारी चल रही है। अब सवाल ये है कि धोबी को अगर धोबी नही कहेंगे तो क्या कहेंगे, और अगर धोबी शब्द में पाबंदी लग जाती है तो हिंदी के उस मुहावरे का तो बाजा बज जायेगा, अरे वही धोबी का कुत्ता ना घर का ना घाट का। यही नही रामायण के उस अंश का जिक्र कैसे किया जायेगा जिसमें शायद यही कहा गया है कि सीता के रावण के यहाँ रहने को लेकर एक धोबी के अपनी पत्नी को कुछ कमेंट करते सुनकर राम ने सीता को गर्भावस्था में घर से निकाल दिया था (ऐसा ही कुछ था ना)। सिंगापुर और मलेशिया में इस नाम की सड़क (Dhobi or Dhoby Ghaut ) का क्या होगा? धोबी शब्द को मलय भाषा में डोबी (as dobi means laundry So “kedai dobi” means “laundry shop”) के नाम से उपयोग में लाया गया है उसका क्या होगा? ब्रिटानिका एनसाक्लोपिडिया में आये धोबी नट (Semecarpus anacardium) का क्या होगा? अब आप जरूर सोच रहे होंगे आखिर आज की चर्चा में मैं इस शब्द के पीछे क्यों पड़ गया दरअसल इसकी एकमात्र वजह है आज का वो चिट्ठाकार जिसके लिखे की चर्चा आज होने वाली है, उनकी हर पोस्ट में शब्द की खाल निकाली जाती है, अगर यकीन नही आता तो हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या, खुद पढ़ लीजिये –
हास-परिहास, दिल्लगी के अर्थ में हिन्दी में सर्वाधिक जिस शब्द का इस्तेमाल होता है वह है मज़ाक़। मूलत रूप में यह शब्द सेमिटिक भाषा परिवार का है। परिहास-प्रिय व्यक्ति को मज़ाक़िया कहा जाता है और इसका सही रूप है मज़ाक़ियः, जिसका हिन्दी रूप बना मजाकिया। मज़ाक़ शब्द की पैदाइश भी सेमिटिक धातु ज़ौ से हुई है जिससे ज़ौक़ शब्द बना है। ज़ौ से ही जुड़ता है अरबी का मज़ः जिसका अर्थ है ठट्ठा, हास्य आदि। इसका एक अन्य रूप है मज़ाहा। हिन्दी की खूबी है कि हर विदेशज शब्द के साथ उसने ठेठ देसी शब्दयुग्म या समास बनाए हैं जैसे अरबी मज़ाक़ के साथ जुड़कर हंसी-ठट्ठा की तर्ज़ पर हंसी-मजाक बन गया। मजः या मज़ाहा से ही बना है हिन्दी का एक और सर्वाधिक इस्तेमाल होनेवाला शब्द मज़ा है जो आनंद, मनोविनोद, लुत्फ़, ज़ायक़ा, स्वाद, तमाशा जैसे भावों का व्यापक समावेश है। आनंद के साथ ही इसमें दण्ड का भाव भी निहित है जिसकी विवेचना पिछली कड़ी में की जा चुकी है।
देखा आपने कैसे कड़ी से कड़ी जोड़ एक शब्द की खाल उतारने में उतारू हैं हमारे ये चिट्ठाकार, चूँकि इन्हें पहचानना बहुत आसान है इसलिये पहले ही नाम बता दूँ, शब्दों के साथ गुल्ली डंडा खेलने वाले हमारे आज के चिट्ठाकार हैं अजित वडनेरकर जी।
जाने कहाँ कहाँ से खोज के लाते हैं एक एक शब्द के पीछे छुपी कहानी और उसके होने ना होने की दास्तॉन –
झांसा शब्द बना है संस्कृत के अध्यासः से जिसका अर्थ है ऊपर बैठना। यह शब्द बना है अधि+आस् के मेल से। अधि संस्कृत का प्रचलित उपसर्ग है और इससे बने शब्द हिन्दी में भी खूब जाने-पहचाने हैं जैसे अधिकार। अधि उपसर्ग में आगे या ऊपर का भाव है। आस् शब्द का अर्थ है बैठना, लेटना, रहना, वास करना आसीन होना आदि। आसन शब्द इसी धातु से निकला है जिसका अर्थ है बैठना, बैठने का स्थान, कुर्सी, सिंहासन, आसंदी वगैरह। इस तरह अध्यासः का अर्थ हुआ ऊपर बैठना।
बकलमखुद नाम के शीर्षक के तहत ये दूसरे साथी चिट्ठेखारों की खुद की बयाँ की गयी आप-बीती को भी अजीतजी शब्दों के सफर का साथी बनाते गये। अनिता जी से शुरू ये सिलसिला अभी चंद्रभूषण जी तक पहुँचा है, इस दौरान १६ साथियों की आप-बीती परोसी गयी।
शब्दों की तलाश को लेकर खुद अजीतजी का कहना है –
शब्द की तलाश दरअसल अपनी जड़ों की तलाश जैसी ही है।शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर भाषा विज्ञानियों का नज़रिया अलग-अलग होता है। मैं न भाषा विज्ञानी हूं और न ही इस विषय का आधिकारिक विद्वान। जिज्ञासावश स्वातःसुखाय जो कुछ खोज रहा हूं, पढ़ रहा हूं, समझ रहा हूं …उसे आसान भाषा में छोटे-छोटे आलेखों में आप सबसे साझा करने की कोशिश है।
मसखरे की मसखरी को सिर माथे लगाकर पेट पकड़कर सभी लोग हसँते तो हैं लेकिन उनमें से कितने ये जानते हैं मसखरा आखिर आया कहाँ से, और अगर आप भी उनमें से एक हैं तो लीजिये जान लें कहाँ से आया मसखरा –
हिन्दी में मसखरा शब्द अरबी के मस्खर: से बरास्ता फारसी उर्दू होते हुए आया। में अरबी में भी मस्खर: शब्द का निर्माण मूल अरबी लफ्ज मस्ख से हुआ जिसका मतलब है एक किस्म की खराबी जिससे अच्छी भली सूरत का बिगड़ जाना या विकृत हो जाना। यह तो हुई मूल अर्थ की बात । मगर यदि इससे बने मसखरा शब्द की शख्सियत पर जाएं तो अजीबोगरीब अंदाज में रंगों से पुते चेहरे और निराले नैन नक्शों वाले विदूषक की याद आ जाती है। हिन्दी के मसखरा शब्द का अरबी रूप है मस्खरः जिसके मायने हैं हँसोड़, हँसी-ठट्ठे वाला, भांड, विदूषक या नक्काल वगैरह। जाहिर है लोगों को हंसाने के लिए मसखरा अपनी अच्छी-भली शक्ल को बिगाड़ लेता है। मस्ख का यही मतलब मसखरा शब्द को नया अर्थ देता है।
अब पेट खाली हो तो ना हँसा जा सकता है ना रोया और ना ही इन शब्दों की भूलभूलैया में देर तक भटका जा सकता है, इस तरह भटकना मुश्किल हो जाता है उसके लिये जो शब्द की तलाश में निकला हो और उसके लिये भी जो तलाशे गये शब्द के इतिहास की खोज में हो, शायद यही सोच कर अजीत जी खानपान शीर्षक की तरह परोसते रहते हैं जायकेदार व्यंजन वाले शब्द। यानि हिंग लगे ना फिटकरी रंग चोखा ही चोखा और या कह लीजिये सोने पर सुहागा या शायद ये कहना सही रहेगा पूनम का पराँठा और पूरणपोळी की गोली –
परांठा शब्द बना है उपरि+आवर्त से। उपरि यानी ऊपर का और आवर्त यानी चारों और घुमाना। सिर्फ तवे पर बनाई जाने वाली रोटी या परांठे को सेंकने की विधि पर गौर करें। इसे समताप मिलता रहे इसके लिए इसे ऊपर से लगातार घुमा-फिरा कर सेंका जाता है। फुलके की तरह परांठे की दोनो पर्तें नहीं फूलतीं बल्कि सिर्फ ऊपरी परत ही फूलती है। इसका क्रम कुछ यूं रहा उपरि+आवर्त > उपरावटा > परांवठा > परांठा। हिन्दुस्तानी रसोई में दर्जनों तरह के परांठे बनते हैं। सबसे आसान तो सादा परांठा ही होता है। भरवां परांठे भी खूब पसंद किए जाते हैं। सर्वाधिक लोकप्रिय है आलू का परांठा। कुशल गृहिणियां साल भर मौसमी सब्जियों और अन्य पदार्थो की सब्जियों से स्टफ्ड परांठें बनाती रहती हैं। रसोइयों की प्रयोगधर्मिता से परांठों की दुनिया लगातार विस्तार पा रही हैं। दिल्ली के चांदनी चौक क्षेत्र में मुगल दौर से आबाद नानबाइयों का एक बाजार अब परांठोंवाली गली के नाम से ही मशहूर हो गया है।
महाराष्ट्र का प्रसिद्ध व्यंजन है पूरणपोळी। ऐसा कोई तीज त्योहार नहीं जब मराठी माणूस इसकी फरमाईश न करता हो। इडली डोसा जितनी तो नहीं, पर मराठी पकवान के तौर पर इसे भी अखिल भारतीय पहचान मिली हुई है। इसे स्टफ्ड मीठा पराँठा कहा जा सकता है।
पोंछ लीजिये तुरत फुरत, आपके मुँह से टपकती लार दिख रही है मुझे। शब्दों के सफर के बिना हिंदी ब्लोगिंग का सफर हमेशा अधूरा रहेगा। अपने आप में अनोखा, अनूठा और अलग तरह का चिट्ठा है शब्दों का सफर और इस सफर के एक एक कदम के लिये की गयी मेहनत साफ साफ नजर आती है। हिंदी में विशेष रूची रखने वालों और विधार्थियों के लिये शब्दों का सफर इज मस्ट।
अपनी बातः पिछली चर्चा के अंत में दी गयी चार लाईना अपनी नही थी लेकिन हाल हमारे दिल का ही बयाँ हो रहा था, अपनी लिखी लाईना को बताना भला भूल सकते हैं हम। इस बार की शनिवार की चर्चा थोड़ा पहले ही कर दे रहे हैं, कारण नंबर एक आफिस के काम के चलते अगले कुछ दिनों तक समय नही, कारण नंबर २ शुक्रवार और शनिवार के दिन आप लोग हो सकता है टीवी से ही चिपके रहें, कोर्ट से नतीजा जो निकलने वाला है। इसलिये मौज मना, शोर मचा और चिल्ला के बोल – आल इज वैल।
अब अगले शनिवार को हाजिर होंगे किसी और साथी के चिट्ठे को लेकर, तब तक के लिये –
हम ऐसे आशिक हैं जो गुलाब को कमल बना देंगे,
उसकी हर अदा पर गजल बना देंगे
अगर वो आ जायेंगे मेरी जिंदगी में,
तो रिलायंस की कसम दिल्ली में भी ताजमहल बना देंगे