नमस्कार मित्रों!
मैं मनोज कुमार एक बार फिर सोमवार की चर्चा के साथ हाज़िर हूं। इसी सप्ताह हिन्दी दिवस था। तो दिवस को समर्पित करते हुए कुछ विद्वानों के विचार रखते हुए आज की इस चर्चा का शुभारंभ करते हैं।
मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज़्ज़त करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिन्दी की इज़्ज़त न हो, यह मैं नहीं सह सकता। – विनोबा भावे
भारतेंदु और द्विवेदी ने हिन्दी की जड़ें पताल तक पहुँचा दी हैं। उन्हें उखाड़ने का दुस्साहस निश्चय ही भूकंप समान होगा। – शिवपूजन सहाय
हिंदी दिवस सरकारी तौर पर हिंदी को राजभाषा (राष्ट्रभाषा नहीं) के रूप में स्वीकार करने की सांविधानिक तिथि। भारत की विभिन्न बोलियों और भाषाओं में भिन्न्ता होने के बावज़ूद एकसूत्रता के तत्व मौज़ूद थे। जिसके रहते वे भारत के राष्ट्रीय एकीकरण में कभी बाधा बन कर नहीं उपस्थित हुईं। उनका घर एक ही था खिड़्कियां कई थीं। हिंदी में इन खिड़कियों के अंतस्संबंधों को परखने तथा क़ायम रखने की क्षमता है। इसीलिए हिंदी हिन्दुस्तान की अस्मिता है। हिंदी है तो हिन्दुस्तान रहेगा। इसके बग़ैर एक विखंडित संस्कृति के सिवा कुछ नहीं बचेगा।
जब शब्द मिलते हैं तो आपस में प्रेम और भाईचारा बढता है। कुछ इसी तरह के भाव लेकर साधना वैद जी इसकी परिणति से हमें अवगत करा रही हैं। कहती हैं
भावों की भेल,
आँखों का खेल,
शब्दों का मेल,
प्यार की निशानी है !
होंठों पे गीत,
नैनों में मीत,
पाती में प्रीत,
जोश में जवानी है !
सुदर्शन ने कहा था प्रेम स्वर्गीय शक्ति का जादू है। इसके द्वारा राक्षस भी देवता बन जाता है। वहीं स्वामी विवेकानंद ने कहा था प्रेम असंभव को संभव कर देता है। जगत् के सब रहस्यों का द्वार प्रेम ही है।
हाल ही में दिल्ली और जोधपुर में डॉक्टरों की हड़ताल ने लोगो को दहला दिया। एक के बाद एक होती मौतों ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर क्या वजह है कि मौत से दो-दो हाथ करने वाले हाथों ने अपना काम छोड़ दिया है। देर रात आए एक मरीज की मौत हालांकि डॉक्टरों की लापरवाही नहीं थी। पर उत्तेजित परिजनों ने इसके लिए डॉक्टरों को दोषी ठहरा कर उत्पात मचाया। जिसका नतीजा अगले दिन हड़लात थी। रोहित जी जब बोलते हैं तो बिन्दास ही बोलते हैं पर आज बता रहे हैं डॉक्टर बोले तो …. ?
कुछ सीधे से सवाल उठाते हुए पूछते हैं जब डॉक्टर जानते हैं कि उनकी जरा सी लापरवाही मरीजों की जान ले लेती है, तो क्या उन्हें हड़ताल करनी चाहिए। सरकारी अस्पतालों में गरीब औऱ निम्न मध्यम वर्ग के मरीज ज्यादा आते हैं। ऐसे में उनकी जान से खिलवाड़ क्यों। इतिहास से कुछ तथ्यों का हवाला देते हुए बताते हैं गुलाम भारत में पिछली सदी में एक महान जीव विज्ञानी हुए थे जगदीश चंद्र बसु। जिस कॉलेज में वो पढ़ाते थे, उसमें उनकी तनख्वाह अंग्रेज प्रोफेसरों से कम थी। इस अन्याय के खिलाफ उन्होंने भी विरोध जताया। वो भी एक दो दिन नहीं पूरे दो साल तक। एक हाथ पर विरोध की काली पट्टी बांधी औऱ बिना तनख्वाह लिए पढ़ाते रहे। हार कर दो साल बाद अंग्रेजी सरकार झुक गई।
डॉक्टरों के अपने तर्क हैं, अपनी मांगे भी। पर इन सब पाटों में पिसता है आम भारतीय नागरिक। जान जाती है गरीब, निम्म औऱ मध्यम वर्ग की। ऐसे में बेबस औऱ लाचार समाज कैसे जानलेवा हड़ताल का समर्थन करे।
इसी पोस्ट पर बिहारी (बड़े) भाई कहते हैं “हम त बहुत सा बात कह चुके हैं..इसलिए अभी बस आपके बात से सहमति,असहमति अऊर कहें त बैलेंस बनाते हुए अपना हाज़िरी लगा रहे हैं.” दरअसल उन्हों ने भी एक पोस्ट इस विषय पर लगाई थी। शिर्षक था देवदूत। पढिए यहां।
इस पोस्ट को लगाने का उनका आशय शायद दिव्या जी के पोस्ट से रहा हो। पर पहले यह देखें कि दिव्या जी ने क्या कहा रोहित जी के पोस्ट पर “आज देश को ज़रुरत है एक जागरूक ‘परशुराम’ की जो अपने फरसे से चिकित्सकों को नेस्तनाबूद कर दे।” यह आक्रोश वाजिब है। डॉक्टरों पर हो रहे आत्याचार और नाइंसाफ़ी से क्षुब्ध होकर उन्होंने एक पोस्ट लगाया था और तमाम प्रश्न किया था। पेशे से डॉक्टर दिव्या जी ने आप डॉक्टर हैं या कसाई शीर्षक से एक पोस्ट लगाई थी। १४७ टिप्पणियों के साथ वहां काफ़ी विचार मंथन हुआ और चर्चा सफ़ल रही।
इस विषय पर अलग-अलग मत हैं। सबके पक्ष में कुछ तर्क, कुछ औचित्य और बहुत दम है।
अत्याचार की बात चली तो लगे हाथ आपको लिए चलते है शब्दकार पर जहां आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ प्रस्तुत कर रहे हैं सामयिक कविता : मेघ का सन्देश : ——–संजीव सलिल’।
देख अत्याचार भू पर.
सबल करता निबल ऊपर.
सह न पाती गिरे बिजली-
शांत हो भू-चरण छूकर.
प्रकृति पर भी निर्मम आत्याचार करने से हम बाज नहीं आ रहे। तभी तो तरह-तरह की प्राकृतिक आपदाओं का हमें सामना करना पड़ता है। और अग्र कवि हृदय हो ‘सलिल’ जी जैसा तो शब्दों का कमाल देखिए
तूने लाखों वृक्ष काटे.
खोद गिरि तालाब पाटे.
उगाये कोंक्रीट-जंगल-
मनुज मुझको व्यर्थ डांटे.
‘सलिल’ जी
आपने अपनी कविता में पर्यावरण पर हो रहे अत्याचार को लेकर कुछ जरूरी सवाल खड़े किए हैं। विगत कुछेक दशकों में हमारे पर्यावरण में जितने बदलाव आए हैं उसकी चिंता आपकी कविता में बहुत ही प्रमुख रूप में दिखाई देती है। हमने इस बदले वातावरण में जिस तरह से अपनी प्रकृति का दोहन और शोषण कर डाला है वह आपकी कविता में चिंता का विषय है। तभी तो आपका मेघ कहता है
गगनचारी मेघ हूँ मैं.
मैं न कुंठाग्रस्त हूँ.
सच कहूँ तुम मानवों से
मैं हुआ संत्रस्त हूँ.
जब मन संत्रस्त होता है तो उसके कुछ कारण भी होते हैं। ऐसे ही एक कारण पर ध्यान खींच रहे हैं चरैवेति चरैवेति पर अरुणेश मिश्र कहते उन्हें एक छन्द : त्यागने वाले मिले । देखिए इनकी जीवन के सच को बयान करती पंक्तियां।
सुमनोँ को मिला
जहाँ गन्ध पराग
वहाँ कण्टक
मतवाले मिले ।
कितनी बड़ी त्रासदी
है जग मेँ
अपनाकर
त्यागने वाले मिले ।
शब्द सामर्थ्य, भाव-सम्प्रेषण, संगीतात्मकता, लयात्मकता की दृष्टि से कविता अत्युत्तम हैं। जीवन के कटु यथार्थ को चित्रित करती कविता नए आयाम स्पर्श कर रही है।
ज़िंदगी के श्वेत पन्नों को न काला कीजिये परिकल्पना पर रवीन्द्र प्रभात की ये ग़ज़ल मेरी पसंद है।
ग़ज़ल
ज़िंदगी के श्वेत पन्नों को न काला कीजिये
आस्तिनों में संभलकर सांप पाला कीजिये।
चंद शोहरत के लिए ईमान अपना बेचकर –
हादसों के साथ खुद को मत उछाला कीजिये।
रोशनी परछाईयों में क़ैद हो जाये अगर –
आत्मा के द्वार से खुद ही उजाला कीजिये।
खोट दिल में हर किसी के यार है थोडी-बहुत
दूसरों के सर नही इल्ज़ाम डाला कीजिये ।
ताकती मासूम आँखें सर्द चूल्हों की तरफ ,
सो न जाये तब तलक पानी उबाला कीजिये।
जब तलक प्रभात जी है घर की कुछ मजबूरियाँ ,
शायरी की बात तब तक आप टाला कीजिये ।
आज बस इतना ही।