कौन माई का लाल कहता है कि स्त्री आत्मकथाकारों के यहां दैहिक दोहन का चित्रण पोर्नोग्राफिक है? घाव दिखाना क्या देह दिखाना है? पूरा स्त्री-शरीर एक दुखता टमकता हुआ घाव है। स्त्रियां घर की देहरी लांघती हैं तो एक गुरु, एक मित्र की तलाश में, पर गुरु मित्र आदि के खोल में उन्हें मिलते हैं भेड़िये। और उसके बाद प्रचलित कहावत में ‘रोम’ को ‘रूम’ बना दें तो कहानी यह बनती नजर आती है कि ‘ऑल रोड्स लीड टु अ रूम।’
चतुर बहेलिया वाग्जाल फैलाता है और चूंकि भाषा एक झिलमिली भी है, एक तरह का ‘ट्वालाइट जोन’ भी, कुछ हादसे घट भी जाते हैं! … अपने ही भीतर से संज्ञान जगा या किसी और ने सावधान किया तब तो पांव पीछे खींच लिये जाते हैं… वरना धीरे-धीरे देह के प्रति एक विरक्ति-सी हो जाती है और उसकी हर तरह की दुर्गति-मार-पीट से लेकर यौन दोहन तक इस तरह देखती है लड़की जैसे छिपकली अपनी कटी हुई पूंछ! देह जब मन से कट जाए – भाषा में दावानल जगता है और जिसे लिखना आता है, वह दावानल की ही स्याही बनाकर ‘धरती सब कागद करूं’ की मन:स्थिति में पहुंच जाता है। यह एक थेरेपी भी है और आगे इस क्षेत्र में असावधान कदमों से आने वाली बहनों या मानस-पुत्रियों को दी गयी सावधानी भी, संस्मरण मीरा की इन पंक्तियों का उत्तर-आधुनिक पक्ष : ‘जो मैं ऐसा जानती, प्रीत किये दुख होय / नगर ढिंढोरा पीटती, प्रीत न करियो कोय।’
इस तरह से देखा जाए तो हर स्त्री-आत्मकथा आगे आनेवालियों की खातिर एक उदास चेतावनी है। इसमें मीरा का मीठा विरह नहीं बोलता, एक हृदयदग्ध जुगुप्सा बोलती है पर बोलती है वही बात। आदर्शवाद स्त्रियों को घुट्टी में पिलाया जाता है। पहले स्त्रियां तन-मन से सेवा करती थीं और सिर्फ अपने घर के लोगों की, आदर्शवाद के तहत सेवा अब भी करती हैं – सिर्फ तन-मन से नहीं, तन-मन-धन से करती हैं और सिर्फ घर की नहीं, ससुराल-मायका, पड़ोस, कार्यक्षेत्र, परिजन-पुरजन – सबकी। दुर्गा के दस हाथों का बिंब आगे बढ़ाएं तो दस दिशाओं में फैले दस हाथों में अस्त्र-शस्त्र नहीं, दस तरह के काम रहते हैं।
दार्शनिक विट्गेंस्टाइन कहते हैं, “दार्शनिक समस्याएं तब खड़ी होती हैं जब भाषा छुट्टी पर चली जाती है.” यानी भाषा के बेढंगेपन का विचार के बेढंगेपन से गहरा संबंध है. कवि लीलाधर जगूड़ी भी अपनी एक कविता में यही पूछते दिखते हैं कि ’पहले भाषा बिगड़ती है या विचार’ . एक काल्पनिक प्रश्न के उत्तर में कन्फ़्यूसियस अपनी प्राथमिकता बताते हुए कहते हैं “यदि भाषा सही नहीं होगी तो जो कहा गया है उसका अभिप्राय भी वही नहीं होगा; यदि जो कहा गया है उसका अभिप्राय वह नहीं है,तो जो किया जाना है,अनकिया रह जाता है; यदि यह अनकिया रह जाएगा तो नैतिकता और कला में बिगाड़ आएगा ; यदि न्याय पथभ्रष्ट होगा तो लोग असहाय और किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े दिखाई देंगे. अतः जो कहा गया है उसमें कोई स्वेच्छाचारिता नहीं होनी चाहिए. यह सबसे महत्वपूर्ण बात है.”
अंत में प्रियंकर जी बात से जैसे हिंदी का एक आम पाठक अपनी सहमति दर्ज करता है
किसी को हटाने-बिठाने और उखाड़ने-स्थापित करने के व्यवसाय/व्यसन में पूर्णकालिक तौर पर संलग्न महाजन भले ही इस तथ्य से मुंह फेर लें पर सच तो यह है कि आम हिंदीभाषी को इन दुरभिसंधियों से कोई लेना देना नहीं है. हिंदी समाज में साक्षरता और शिक्षा के स्तर तथा साहित्य के प्रति सामान्य उदासीनता को देखते हुए कुल मिला कर यह छायायुद्ध अब एक ऐसे घृणित प्रकरण में तब्दील हो गया है जो भारतेन्दु के सपने और हिंदी जाति के एक नव-स्थापित अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय को उसके शैशव काल में ही नष्ट कर देने की स्थिति निर्मित करने का दोषी है. श्लेष का प्रभावी प्रयोग करते हुए भारतेन्दु ने हिंदी जाति के दो फल ‘फूट’ और ‘बैर’ गिनाए थे. नियति का व्यंग्य यह है कि उनका सुंदर सपना भी इन्हीं आत्मघाती फलों की भेंट चढने जा रहा है.
सदाचार को तो हम पहले ही मार चुके हैं, यह भाषा-साहित्य से सामान्य शिष्टाचार की विदाई का बुरा वक्त है .
किसी रचनाकार की केन्द्रीय चिंता कई है ….साहित्य में संघर्ष से इतर कुछ कवी चेतना के कई स्तरों को छू कर लौट आते है …ऐसे ही एक कवि नरेश सक्सेना जी एक कविता “समुद्र पर हो रही बारिश ‘ के माध्यम से सुशीला पूरी जी परिचय कराती है
कैसे पुकारे
मीठे पानी मे रहने वाली मछलियों को
प्यासों को क्या मुँह दिखाये
कहाँ जाकर डूब मरे
खुद अपने आप पर बरस रहा है समुद्र
समुद्र पर हो रही है बारिशनमक किसे नही चाहिए
लेकिन सबकी जरूरत का नमक वह
अकेला ही क्यों ढोये
कभी कभी हम किसी रचना प्रक्रिया से गुजरते वक़्त जब आक्रोशित होते है तो शायद अपना बेहतर देते है …..यूँ भी कुछ कविताएं कभी कभी खुद का प्रतिनिधित्व करती है.दर्पण ऐसे ही किसी बगावती तेवर लिए समय से रूबरू होते है
कविता,मुहावरों में ऊँटों के मार दिए जाने का कारण जानने की ‘उत्कंठा’ है.कविता जीरा है…..जब वो भूख से मरते हैं.अन्यथा,पहाड़.पहाड़……चूँकि खोदे जा चुके हैं,…गिराए जा चुके हैं, ऊँटों के ऊपर.इसलिए दिख जाती है,पर समझी नहीं जा सकती.‘कविता लुप्त हुई लिपि का जीवाश्म है.’
पूरी कविता “कविता उम्मीद से है ! पर चटका लगा कर पढ़ी जा सकती है
उसे यूँ समराइज़ करता है
कविता ज़ेहन में अचानक रिंग टोन सी नहीं बज सकती,क्यूंकि उसका अस्तित्व ‘शब्द’ है.
वो ज़ेहन में पड़ी रहती है अब बस….अनरीड मेसेज की तरह कभी डिलीट कर दिए जाने के लिए.
अलबत्ता मुझे ये तमाम कविताओ पर फिर बैठता मालूम पड़ता है
मसलन मुकेश कुमार की ये कविता ….सड़क
काले कोलतार व रोड़े पत्थर के मिश्रण से बनी सड़क
पता नहीं कहाँ से आयीऔर कहाँ तक गयीजगती आँखों से दिखे सपने की तरहइसका भी ताना – बानाओर – छोर का कुछ पता नहींकभी सुखद और हसीन सपने की तरहमिलती है ऐसी सड़कजिससे पूरी यात्राचंद लम्हों में जाती है कट!वहीँ! कुछ दु: स्वप्न की तरहदिख जाती है सड़केंउबड़-खाबड़! दुश्वारियां विकट!!पता नहीं कब लगी आँखऔर फिर गिर पड़े धराम!या फिर इन्ही सड़कों परहो जाता है काम – तमाम!!
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