टेप पर गाना बज रहा है, ‘सुरमई अंखियों वाली, सुना है तेरी अंखियों में‘, मैं गाना एन्जॉय करता हुआ चर्चा करने की सोचता हूँ तभी छुटकी आती है और जिसे ए बी सी तक पता नही उसे चेंज कर अपना पसंदीदा आल इज वैल लगा देती है। मेरे इकट्ठे किये सारे शब्द बिखर जाते हैं, अब मैं फिर से आल इज वैल की फ्रीकवेंसी में सोचता हुआ शब्दों को इकट्ठा करता हुआ चिट्ठा जगत में विचरण करने लगता हूँ। कुछ समय बाद ही लग जाता है आल इज नॉट वैल। मैं उठ कर गाना चेंज कर देता हूँ, ‘आओगे जब तुम साजना, अंगना फूल खिलेंगे‘, गाने की फ्रीकवेंसी से फिर अपनी सोच एडजस्ट करते करते मेरी नजर एक पोस्ट पर अटक जाती है – अबकी बार राखी में जरूर घर आना, पोस्ट में पटे चित्र देख, पहाड़ याद आ जाता है वो अपने लोग याद आते हैं।
गाँव-देश छोड़ अब तू परदेश बसा है
बिन तेरे घर अपना सूना-सूना पड़ा है
बूढ़ी दादी और माँ का है एक सपना
नज़र भरके नाती-पोतों को है देखना
लाना संग हसरत उनकी पूरी करना
राह ताक रही है तुम्हारी प्यारी बहना
अबकी बार राखी में जरुर घर आना
बहना ने भाई की कलाई से प्यार बाँधा है जैसे गीत कानों में गूँजने लगते हैं, बचपन के दिन याद आ जाते हैं जब दोनों हाथों में कोहनी तक राखी बाँधे दोस्तों को दिखाते फिरते थे। बहन-भाई के बंधन में उलझे उलझे नजर जाती है शेफालीजी की पोस्ट पर, कामवालियां बनाम घरवालियाँ, दिमाग पूरी तरह छुट्टी के मूड में लगता है क्योंकि दिमाग में ‘एक तरफ है घरवाली, एक तरफ बाहरवाली‘ के सुर भरतनाट्यम करने लगते हैं। जहाँ एक तरफ कामवाली के तेवर कुछ ऐसे होते हैं –
बिना किसी संकोच के वह अपने शरीर पर लगे हुए चोट के निशानों के सन्दर्भ में बताती है ” आदमी ने मारा , बहुत कमीना है साला, मैंने भी ईंटा उठा कर सिर फोड़ दिया साले का , आइन्दा से मारेगा तो दूसरा घर कर लूंगी “
वहीं दूसरी तरफ घरवाली –
वह चोटों के निशान को छुपाने की कला में पारंगत होती है, चेहरे पर नील के निशान को ” बाथरूम में फिसल गई थी” कहकर मुस्कुरा देती है
घरवाली की मुस्कान देख इससे पहले कि दिमाग के डॉटाबेस में सलेक्ट गीत फ्रॉम हिंदीसाँगस व्हेयर लिरिक्स इक्वलटू ‘मुस्कान’ की क्वेरी एक्जीक्यूट होती आँखों की नजर पड़ती है – बस एक शार्क चाहिए!, किसको? सुब्रमणियन जी को, क्वेरी में दिये पैरामीटर की वैल्यू अपने आप चेंज हो जाती है और लिहाजा दिमाग के प्लेटफार्म में बजने लगता है, ‘बस एक सनम चाहिये आशिकी के लिये‘, लेकिन सुब्रमणियन जी को शार्क इसलिये नही चाहिये, वो ढूँढ रहे हैं ऐसी शार्क जो लोगों में फिर से फुर्ती भर सके।
टंकी में एक छोटे शार्क को डाल दिया गया. अब मछलियों के सामने एक चुनौती थी, वे फुर्तीले हो गए और अपने बचाव के लिए चलायमान रहने लगे. यह चुनौती ही उन्हें जीवित और ताजगी से परिपूर्ण रखने लगी.
क्या हमें इस बात का एहसास नहीं है कि हम में से बहुत सारे ऐसे ही टंकियों (कूप) में वास कर रहे होते हैं, थके हुए, ढीले ढाले. मूलतः हमारे जीवन में ये शार्क ही हमारी चुनौतियां भी हैं. जो हमें सक्रिय रखती हैं. यदि हम निरंतर चुनौतियों पर विजय प्राप्त कर रहे होते हैं तो हम सुखी होते हैं. हमारी चुनौतियां ही हमें ऊर्जावान बनाये रखती हैं. हमारे पास संसाधनों, कौशल और क्षमताओं की कमी नहीं है. बस एक शार्क चाहिए!
गीतों की कुश्ती और शब्दों की उथल पुथल के बीच नजर आते हैं ज्ञानदत्त पाण्डेय जी, जो चाहते हैं – इतिहास में घूमना, घूमना? दिमाग थोड़ा अटक सा जाता है लेकिन फिर साउंडलाईक की कंडीशन देने पर हाथ आता है, “आती क्या खंडाला, घूमेंगे फिरेंगे, ऐश करेंगे और क्या“। लेकिन ये क्या पाण्डेय जी घूमने, ऐश करने के जैसे सस्ते सरल शब्दों की जगह संजोने, दस्तावेज जैसे भारी भरकम और सीरियस किस्म के शब्द उपयोग में ला रहे हैं –
यहां शिवकुटी में मेरे घर के आस-पास संस्कृति और इतिहास बिखरा पड़ा है, धूल खा रहा है, विलुप्त हो रहा है। गांव से शहर बनने के परिवर्तन की भदेसी चाल का असुर लील ले जायेगा इसे दो-तीन दशकों में। मर जायेगा शिवकुटी। बचेंगे तबेले, बेतरतीब मकान, ऐंचाताना दुकानें और संस्कारहीन लोग।
मैं किताब लिख कर इस मृतप्राय इतिहास को स्मृतिबद्ध तो नहीं कर सकता, पर बतौर ब्लॉगर इसे ऊबड़खाबड़ दस्तावेज की शक्ल दे सकता हूं।
इतिहास गढ़ने के लिये तैयार शब्दों को छोड़ निकलता हूँ तो लाल बत्ती नजर आती है, अरे ये क्या लालबत्ती और वो भी हैलमेट पर। ललित शर्मा जी की कारस्तानी है – हेलमेट और लाल बत्ती का जलवा, टाईटिल और पोस्ट पढ़ते ही दिमाग में एक के बाद एक कई गीत टकरने लगते हैं, ‘तेरा मेरा साथ अमर‘, ‘तू गंगा की मौज मैं जमुना की धारा‘, ‘हम बने तुम बने एक दूजे के लिये‘, ‘तेरा मेरा साथ रहे‘, ‘ये है जलवा‘, ‘मेरा जलवा जिसने देखा‘ ये क्या? कार्टेशियन ज्वाइन की प्राब्लम लगती है, जल्दी से क्वेरी को एंड करता हूँ। उफ्फ, लाल बत्ती का अईसा जलवा, तौबा तौबा।
कुंदन भैया, मोहल्ले के नामी-गिरामी नेता हैं। इन्होने जब से जन्म लिया है तब से अध्यक्ष ही बनते आ रहे हैं, कहने का तात्पर्य यह है कि अध्यक्ष बनने के लिए जन्म लिया है। एक बार इन्हे मुहल्ले वालों ने मुहल्ला विकास समिति का अध्यक्ष बना दिया तब से इन्होने समझ लिया कि अध्यक्ष बनना इनका जन्म सिद्ध अधिकार है। किसी के घर में छठी का कार्यक्रम हो, किसी की मौत पर शोक सभा हो, या सुलभ शौचालय का उद्घाटन, इन्हे बस अध्यक्षता करने से मतलब है।
चिट्ठाचर्चा को यहीं विराम देता हूँ, चिट्ठाजगत वाकई धड़ाधड़ महाराज हैं लेकिन इस धड़ाधड़ में धारदार पोस्ट चुनना दुष्कर काम है, इसलिये संत कबीर के स्वर में कहूँ तो – साधू ऐसा चाहिये जैसा सूप सुभाय, सार सार को गही रहे, थोथा देई उड़ाय। ऐसा ही कुछ था ना।
मैं शब्दों के बिखरे होने का रोना रो रहा था चिट्ठाजगत में तमाम ब्लोग और पोस्ट को इधर उधर बिखरे देखा तो लगा अपने बिखरे शब्द तो कुछ भी नही।
ब्रेकिंग न्यूजः और फुरसतिया के छः साल पूरे, ये कहना है ब्लोगिंग के नोर्थ पोल में बर्फ की तरह जमे हुए खुद फुरसतिया यानि अनूप शुक्ल का। आप भी अगर अपनी बधाई का टोकरा उन्हें भेजना चाहें तो ००७ में टोकरा टाईप करके एस एम एस करिये।
बीच-बीच में कुछ लोगों को जीनियस, सुपर जीनियस और अतिमानव सा बताया गया जिनको देखकर लगा ये किसी इतरलोक के जीव हैं। यह हमारे समाज का सहज स्वभाव है। जिसको चाहते हैं ,बल भर चाहते हैं। उसमें कोई कमीं नहीं देखना चाहते। किसी ने उसकी तरफ़ इशारा भी किया तो उसकी आंख निकाल लेने के लिये हाथ बढ़ा देते हैं।
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