डा.अनुराग की पोस्ट छिनाल माने ?? में विभूति नारायण राय जी के बयान पर पाठकों की प्रतिक्रियाओं के बाद ब्लॉग जगत में कई पोस्टें आयीं। लोगों ने इस सस्ती सोच के खिलाफ़ बातें कहीं। कल विभूति नारायण राय ने अपने कहे के लिये माफ़ी मांग ली। इस मुद्दे पर अपनी बात कहते हुये रंगनाथ सिंह लिखते हैं:
तो,वर्दीवाले और सादीवर्दी वाले दोनों सुन लें। कोई ड्रामा नहीं चाहिए। बेहतर है कि इस्तीफा दो,बर्खास्तगी से बचो। जाली माफीनामा नहीं चाहिए।
इस सारे घटनाक्रम पर हिन्दी के ब्रांड एम्बेसडर का कोई नामवर सिंह जी का कोई बयान नहीं आया। इस बात को विनीत कुमार अपनी नजर से देखते हुये लिखते हैं:
चैनलों में बाइट लेने के जो बंधे-बंधाये चालू फार्मूले हैं, उस हिसाब से भी नामवर सिंह का बोलना जरूरी है लेकिन कहीं कुछ भी नहीं। यहां मौके के बीच ब्रांड पिट गया या फिर उसे मैदान में उतरने ही नहीं दिया गया। ऐसा करके (मीडिया, मंच और खुद नामवर सिंह भी) बेवजह झंझटों से मुक्त होने के मुगालते में भले ही हों, लेकिन हिंदी मतलब नामवर सिंह जो पंचलाइन बनी रही है, वो ध्वस्त होती है। इस पूरे प्रकरण से आप ये भी समझ सकते हैं कि कई बार बाजार खुद भी अपने ही बनाये फार्मूले से मुकर जाता है और नये फार्मूले की खोज में भटकने लग जाता है। विभूति नारायण के मामले में नामवर सिंह की चुप्पी कुछ इसी तरह से है। हिंदी का पढ़ा-लिखा समाज फिर भी समझता है कि हिंदी का मतलब सिर्फ नामवर सिंह नहीं होता लेकिन समाज का एक बड़ा तबका जिसके लिए नामवर एक हिंदी ब्रांड है, वो उन्हें यहां न देखकर हैरान है।
आगे इस मसले पर लिखते हुये विनीत का कहना है:
नामवर एक ऐसे ब्रांड हैं, जो अपभ्रंश के विकास से लेकर उत्तर-उपनिवेशवाद, इतिहासवाद तक बात कर सकते हैं। उनके यहां विचारों का उत्पाद इन्हीं मल्टीनेशनल कंपनियों के फार्मूले पर होता है। यह अकारण नहीं है कि हर कविता संग्रह, कहानी संग्रह, उपन्यास, संस्मरण, आलोचना तो उनकी मदर ब्रांड ही है पर बोलने-लिखने के लिए रचना उत्पादकों का तांता लगा रहता है। नामवर सिंह ने इसके लिए कट्टरता की हद तक (रचनाकर्म के साथ-साथ मार्केटिंग मैनेजमेंट तक) मेहनत की है।
लेकिन इस मसले पर नामवरजी शायद इस लिये चुप रहे क्योंकि विभूति नारायण जिस विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, नामवर सिंह इसी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं। अब ऐसे में वो कैसे बोल सकते हैं।
विनीत के इस लेख पर अवनीश मिश्र का कहना है:
जिस ब्रांड के ध्वस्त होने की बात तुम कर रहे हो उसका ध्वस्त ना होना…नामवर की चतुराई से ज्यादा हिन्दी पट्टी के लेखकों और आलोचकों की मूढ़ता और अकर्मण्यता ज्यादा है…नामवर ने जब चोरी भी की तो उसे अपनी भाषा और दृष्टी से नया बनाया..या ‘नया जैसा’ बनाया … आज सारी सुविधा होने के बावजूद जब लोग चोरी कर रहे हैं तो पकडे जा रहे है..कि देखो ये अनुवाद तो फलां किताब का है..और ये अंश तो फलां पाराग्राफ से है….नामवर ना बोलें या बोलें उसे इतना महत्व दिया जाना ही बताता है कि नामवर का आतंक पुराणी पीढी पर ही नहीं नयी विद्रोही पीढी पर भी है…
और अरविन्द मिश्र का विनीत के लेख के बारे में कहना है-अनावश्यक विस्तार आपकी आदत है लगता है !
प्रमोद जी जब पाडकास्टिंग करते हैं तो गजबै करते हैं। आज वे प्रत्यक्षा से सवाल करने लगे कि वे लिखती क्यों हैं। सुनिये।
इसको सुनकर अपूर्व ने राय जाहिर की:
सुना गया..और समझने की, उसे गहने की कोशिश की गयी..आगे और की जायेगी..बस कुछ है..जो भले पूरी तरह समझ न आये..मगर अपने होने की, अपने वैभव की उपस्थिति जरूर देता है..कुछ वही ’इल्यूसिव’ सा..यही कोई जीवन है जो हमारे सपनों मे हो कर भी यथार्थ से ज्यादा यथार्थ लगता है..
अब जब बात चली अपूर्व की तो उनकी कविता भी सुन लीजिये। कविता में कविता के नायक की बेबसी और अपराधबोध से बड़ी घबराहट हो गयी मुझे तो। आप सुनिये आपका विचार शायद अलग हो।
अमरेन्द्र ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये लिखा:
अपूर्व भाई कविता से पहले से ही परिचित हूँ .. इसकी श्रेष्ठता असंदिग्ध है ..
पर … …
यहाँ कविता का जो वाचन हुआ है , इसे सफल नहीं कहूंगा ..
कविता का यह अतिनाटकीय वाचन है , जो कविता के साथ न्याय करता नहीं लगा , पढ़ते हुए ‘वीर-जारा’ फिलिम के ‘कैदी नं. ७८६ ‘ के कविता-वाचन की याद बरबस आ बैठी , क्योंकि यहाँ शाहरुख खान जैसा ही अतिनाटकीय प्रयास/वाचन दिखा .. इससे कविता के व्यंग्यार्थ/व्यंजनार्थ-ग्रहण में बाधा आयी है ! .. मेरे हिसाब से एक सफल कवि की कविता का असफल निर्देशन हुआ है .. क्षमा चाहूँगा !! .. आभार !!
सरकारी सेवाओं का निगमीकरण हो रहा है लेकिन उसके हश्र क्या हैं यह विजय गौड़ से सुन लीजिये:
टेलीफोन डिपार्टमेंट के निगमी करण के बावजूद बी एस एन एल एक सार्वजनिक सेवा ही है। निजीकरण की प्रक्रिया को एकतरफा बढ़ावा देती सरकारी नीतियों के चलते वह कब तक सरकार बनी रहेगी यह प्रश्न न सिर्फ बी एस एन एल के लिए है बल्कि उन बहुत से क्षेत्रों के सामने भी खड़ा है जो अभी सार्वजनिक सेवा के रुप में सरकारी मशीनरी द्वारा ही संचालित है। बी एस एन एल का सबक दूसरे विभागों को भी निजी हाथों में सौंपने का एक पाठ हो सकता है।
महेन्द्र मिश्र जी शायरी बड़े ऊंचे दर्जे की पोस्ट करते हैं। देखिये आज क्या लिखते हैं वे:
दूरियों की ना परवाह कीजिये जब दिल पुकारे बुला लीजिये
बहुत दूर नहीं हूँ आपसे पलकों को बंद कर याद कर लीजिये.
शिखा जी देखिये आज चांद के बारे में क्या-क्या लिखती हैं:
चाँद हमेशा से कल्पनाशील लोगों की मानो धरोहर रहा है खूबसूरत महबूबा से लेकर पति की लम्बी उम्र तक की सारी तुलनाये जैसे चाँद से ही शुरू होकर चाँद पर ही ख़तम हो जाती हैं.और फिर कवि मन की तो कोई सीमा ही नहीं है
घुघुती बासूती जी की समस्या सुनिये:
फूल, पेड़ पहाड़ ही नहीं
मैंने तो अपनी भाषा के
तार तक खो दिए
खोए या अंग्रेजी के तारों में
कुछ यूँ उलझे
कि सुलझाने को अब
रोडडेन्ड्रन शब्द चाहिए।
अब मानस भारद्वाज की समस्या भी सुनिये:
तेरे साथ का एक एहसास जो होता है
मैं सोचता हूँ कि वो लिखूँ
तेरे एहसास को मैं कैसे लिखूँ
जो मैं लिखता हूँ वो तेरी यादें हैं
वो यादें जो याद नहीं होती
अक्सर देश में भारत रत्न की बात होती है। इसको दे दो उसको न दो। ये काबिल हैं वे नाकाबिल हैं। हमारे कानपुर के प्रोफ़ेसर अनिल दीक्षित ने एक बातचीत में कहा:
मध्यवर्गीय परिवार के लिये स्कॉलरशिप भारत रत्न से कम नहीं होती!
इस अर्थ में देखा जाये तो न जाने कितने भारत रत्न आज ब्लॉगर भी हैं जो अपने समय में स्कॉलरशिप पाये हैं और बहुत हैं जो आज भी पा रहे हैं।
फ़िलहाल इतना ही। बकिया फ़िर कभी! जल्दी ही।
पुनश्च:
विनीत कुमार के बारे में दैनिक हिन्दुस्तान में देखिये रवीश कुमार का लेख-मीडिया की मास्टरी वाया ब्लॉगरी