क्योंकि नगर वधुएं अख़बार नहीं पढ़तीं

अभी तक माना ये जाता रहा है कि इन्टरनेट पत्रकारिता को रिडिफ़ाइन कर रहा है। दैनिक अख़बार की ख़बर पहुँचाने की परम्परागत भूमिका को टीवी चैनल पहले ही छीन चुके हैं। अपनी बात कहने के लिए अब कोई किसी अख़बार और पत्रिका के सम्पादक का मोहताज नहीं हैं। लोग न सिर्फ़ अपनी बात कह सकते हैं और चाहे तो मामूली से ख़र्चे के साथ छपास का सुख भी पा सकते हैं।
मगर फिर भी इन्टरनेट पर लिखी जा रही सामग्री को लोग साहित्य के ख़ाने में दाख़िला देने से मुकर रहे हैं। उसके पीछे सोच ये है कि इन्टरनेट का माध्यम लिखने वाले को एक क़िस्म की क्षणिकता, अधीरता, बेतरतीबी, फ़ौरीपन, परिवर्तनशीलता और पाठक को अरझाये रखने की बेचैनी से प्रेरित रहता है। जबकि साहित्य अभी भी ठहराव और धैर्य की व्यवस्था में धंसा हुआ अपरिवर्तनीय पाठ माना जाता है।
लेकिन फिर भी इन्टरनेट पर लिखी जा रही ‘कोटि-कोटि’ कविताओं के अलावा तमाम ब्लौगवीर ऐसे भी हैं जो कहानी पर भी हाथ आज़मा रहे हैं। ऐसे ही एक ब्लौगवीर है साथी अनिल यादव
अनिल पेशे से पत्रकार हैं, बनारस में अपनी शिक्षा-दीक्षा के बाद, उत्तर प्रदेश के तमाम शहरों में कई नौकरियों के बाद आज-कल पायनियर अख़बार में जमे हुए हैं। पिछले दिनों उनके ब्लौग हारमोनियम पर एक लम्बी कहानी कई हिस्सों में आती रही। कहानी का शीर्षक उन्होने दिया है :
‘क्योंकि नगर वधुएं अख़बार नहीं पढ़तीं.. (नहीं पढ़तीं, न पढ़ेंगी)’
बनारस शहर की एक बदनाम बस्ती में पैसे लेकर जिस्मफ़रोशी करने वालियों के बहाने नए भारत के बदलते स्वरूप में जो खेल चल रहे हैं, उन्होने उस पर से कपड़े उतारे हैं। इस कहानी का कैनवास बड़ा है, काफ़ी बड़ा है। पत्रकार, पुलिस, बिज़नेसमैन, नेता, सोशल वर्कर, धर्म के ठेकेदार, रण्डियां या नगरवधुएं, सब के बीच कहानी आती-जाती रहती है। क्योंकि कहानी किसी एक चरित्र की नहीं बल्कि एक समाज की है, जिसे एक पत्रकार ने अपने ही अन्दाज़ में ‘बयाना’ है।
अनिल की कहानी दिलचस्प है कई नज़रियों से। एक तो यही कि ये वेश्याओं के बारे में है और वो भी बनारस की। यूँ तो बनारस और रंडियों का रिश्ता इतना पुराना है कि उसकी दख़ल कहावतों में भी हो गई है। फिर रंडियों से जुड़े मामले हमेशा दिलचस्प होते हैं। न सिर्फ़ इसलिए कि वे हमारे स्वभाव की मूल वृत्ति से जुड़ा व्यापार करती हैं बल्कि इसलिए भी कि एक आम शरीफ़ आदमी को उनके जीवन के बारे में अधिक कुछ मालूम नहीं होता। जिज्ञासा अलबत्ता ज़रूर होती है। मंटो जैसे लेखक की सफलता के पीछे एक बड़ा राज़ यह भी था कि वो उन मसलों पर अपनी क़लम चलाते थे जो हाशिये पर पड़े लोगों से तअल्लुक रखते थे और जिनके बारे में मालूमात पढ़ने वालों में कम होती थी।
दूसरे ये कि अनिल ने वेश्याओ के मामले को महज़ वेश्याओं के मामले की तरह नहीं बरता है। वह पूरे समाज का मामला है और समाज के मुख़्तलिफ़ तबक़ों की तस्वीर उन की कहानी में बनती है या यूँ कहें कि बनती-बिगड़ती है। तीसरे ये कि आप की कहानी में कोई परम्परागत ढंग से नायक-नायिका नहीं है; एक घटनाक्रम है और उसका एक साक्षी है जो अपने आगे चल रहे तमाशे को उसकी जटिलताओं के समूचेपन में समझने की कोशिश करता रहता है।
कहानी कुछ इस अन्दाज़ में शुरु होती है: 
“छवि जिसे फोटो समझती थी, दरअसल एक दुःस्वप्न था। रास्ते में चलते-चलते अक्सर उसे प्रकाश के हाथों में एक चेहरा दिखता था और उसके पीछे अपने दोनों हाथ सीने पर रखे, कुछ कहने की कोशिश करती एक बिना सिर की लड़की….”
कहानी में आगे के कुछ अंश देखिये:
“उसी शाम बुर्के में चेहरा ढके एक अधेड़ औरत लगातार पान चबाते एक किशोर के साथ तीन घंटे से दफ्तर के बाहर खड़ी थी। वह एक ही रट लगाए थी कि उसे अखबार की फैक्ट्री के मालिक से मिलना है। दरबान से उसे कई बार समझाया कि यह फैक्ट्री नहीं है और यहां मालिक नहीं, संपादक बैठते हैं, वह चाहे तो उनसे जाकर मिल सकती है। औरत जिरह करने लगी कि ऐसा कैसे हो सकता है कि अखबार का कोई मालिक ही न हो और उसे तो उन्हीं से मिलना है। आते-जाते कई रिपोर्टरों ने उससे पूछा कि उसकी समस्या क्या है लेकिन वह कुछ बताने को तैयार नहीं हुई। रट लगाए रही कि उसे मालिक से मिलना है। काम भी कुछ नहीं है, बस सलाम करके लौट जाएगी। सी. अंतरात्मा की की नजर उस पर पड़ी तो देखते ही भड़क गए, ‘तुम यहां कैसे, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई प्रेस में आने की, भागो चलो यहां से। हद है अब यहां भी…”

“प्रकाश को यह बूढ़ा कभी-कभार एक सस्ते बार में मिला करता था और दो पैग के बाद पीछे पड़ जाता था कि वह एक पॉलिसी ले ले ताकि उसे बीमा एजेंट बेटे का टॉरगेट पूरा हो सके। प्रकाश उससे हमेशा यही कहता था कि फोकट की दारू पीने वाले उस जैसे पत्रकारों को इतने पैसे नहीं मिलते कि वे बीमा का प्रीमियम भर सकें लेकिन कई साल बाद भी बूढ़े ने अपनी रट नहीं छोड़ी।”

“कार में बैठे-बैठे उन्होंने सबसे पहले कई राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय ठप्पों वाली टी -शर्ट पहनी, दो कंडोम खोलकर दोनों कानों में लटका लिए, जो हवा चलने पर सीगों की तरह तनने लगते थे वरना बकरी के कानों की तरह लटके रहते थे। कई कंडोमों को थोड़ा सा फुलाकर एक धागे में बांधकर उनकी माला गले में डाल ली। वे ऐसे अंगुलिमाल लगने लगे, जिसने किसी पारदर्शी दानव की उंगलियां काटकर गले में पहन ली हों।”

“एक बलिदानी हिन्दू युवक ने संकल्प कर लिया कि अगर मकर संक्रांति तक काशी को वेश्यावृत्ति के कलंक से मुक्त नहीं किया जाता, तो वह सूर्य के उत्तरायण होते ही जलसमाधि ले लेगा। मुंडित सिर, जनेऊधारी यह युवक गले में पत्थर की एक भारी पटिया बांधकर गंगा में ही एक नाव पर रहने लगा।”
पूरी कहानी पढ़ कर मैंने पाया कि किसी एक पात्र या चरित्र के आत्मालाप के चकल्लस में अनिल नहीं उलझते और ये बात उन की कहानी की विशेषता है कि उन्होने आप ने एक मामले के कई सारे पहलुओं को गिरफ़्त में लिया है। निजी तौर पर मुझे आप की कहानी में और भी अधिक रस आता अगर इस कहानी की गति को थोड़ा मद्धम और ठहरीला कर दिया होता। इतने सारे दिलचस्प चरित्रों को और क़रीब से जानने और उनके साथ अधिक समय गुज़ारने की इच्छा होती है।
आख़ीर आते-आते कहानी की रंगत गहरी हो जाती है और एक सर्रियल अंजाम की ओर उन्मुख होती है। कहानी का अद्भुत अन्त एक बड़ी सनसनीखेज़ मगर एक सम्भावित सच्चाई की तरह कचोटता रहता है।
इन्टरनेट पर प्रकाशित होने वाली ये शायद पहली इतनी लम्बी कहानी होगी। हर पहलौठे की जिस उत्साह से आव-भगत होती है, इसकी नहीं हुई। दोस्तों से अनुरोध है कि थोड़ा धीरज दिखायें और इन्टरनेट पर साहित्यिक संस्कृति को विकसित करने में अपना योगदान दें।

लगभग पूरी कहानी यहाँ देखी जा सकती है.. नीचे से ऊपर के क्रम में.. 

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यह प्रविष्टि अभय तिवारी में पोस्ट की गई थी। बुकमार्क करें पर्मालिंक

22 Responses to क्योंकि नगर वधुएं अख़बार नहीं पढ़तीं

  1. Sonal Rastogi कहते हैं:

    अनमोल रचना है ये , बाटने के लिए धन्यवाद कुछ सार्थक मिला

  2. अन्श तो बहुत अच्छे है.. बुकमार्क कर ली है..थोडा इत्मीनान से पढता हू..

  3. rashmi ravija कहते हैं:

    बहुत ही बढ़िया जानकारी…मैं हमेशा ही अच्छी कहानियों की खोज में रहती हूँ…..अनिल यादव जी की कहानी से परिचित कराने का बहुत बहुत शुक्रिया…

  4. वाणी गीत कहते हैं:

    भूमिका बता रही है कि कहानी जरुर बहुत अच्छी रही होगी …कोई अखबार पढ़े बिना कैसे रह सकता है …मेरे लिए तो यही बहुत बड़ा आश्चर्य है ….!!

  5. बहुत खुशी होती है …..ऐसे लोगों के बारे में पढकर….

  6. डा० अमर कुमार कहते हैं:

    .स्वतँत्र पत्रकारिता के आदर्श मानक स्थापित करने वाले स्व. श्री गणेश शँकर विद्यार्थी को उनकी पुण्यतिथि पर कल याद न किया जाना व्यथित कर रहा है । सद्भाव कायम करने के अपने प्रयासों में नाहक ही उन्होंनें 25 मार्च 1931 को कानपुर की गलियों में अपनी जान गँवा दी । 1500 ब्लॉगरों.. जिनमें कुछ सैकड़े पत्रकारिता क्षेत्र से भी जुड़े हैं, उनको कैसे भुला सके ?यदि मैं समयाभाव के कारण न लिख सका, तो क्या ? जागरूकता के पहरुओं को इस बिन्दु पर पढ़ने की इच्छा मेरी कोई नाज़ायज़ अपेक्षा तो नहीं ?यह टिप्पणी विषय से हट कर हो तो क्या, यदि टिप्पणी केवल सतत लेखन के प्रोत्साहन का प्रतीक मात्र है, तो क्या यह केवल परस्पर सँबन्धों को प्रगाढ़ करने के उपयोग तक ही सीमित रहे ?

  7. rashmi ravija कहते हैं:

    @अमर जी, ऐसा नहीं है कि किसी ने नहीं लिखा…रेखा श्रीवास्तव जी ने अपने ब्लॉग में विस्तार से उनके बारे में जानकारी दी है…हाँ वे ज्यादा समय नहीं दे पातीं और लोगों की पोस्ट पर कमेन्ट नहीं कर पातीं,इसलिए उनके ब्लॉग पर लोगों की नज़र नहीं पड़ती.http://merasarokar.blogspot.com/2010/03/blog-post_25.html

  8. SAMVEDANA KE SWAR कहते हैं:

    इस तरह की कहानियां समाज और स्वमं को फिर से समझ्ने की प्रेरणा देती हैं.

  9. रंजना कहते हैं:

    जानकारी देने के लिए आभार…अवश्य ही पढूंगी यह कथा…

  10. shikha varshney कहते हैं:

    काफी अच्छी समीक्षा कर डाली है आपने..अब तो कहानी बिना पढ़े रहा नहीं जा रहा,,जा रही हूँ पढने.बहुत शुक्रिया

  11. samatavadi कहते हैं:

    इस जरूरी चर्चा के लिए अभय को शुक्रिया ।

  12. डा० अमर कुमार कहते हैं:

    @ रश्मि वावेज़ाआपकी दी जानकारी का आभार ! उपरोक्त लिंक को पाकर रेखा जी का उक्त आलेख बाँच पाया ! अनायास उभर आया मेरा क्षोभ तुष्ट और मन सँतुष्ट हुआ ! अपनी अज्ञानता को स्वीकार करते हुये सभी विज्ञजनों से क्षमायाचना !

  13. डॉ. मनोज मिश्र कहते हैं:

    एक नए अंदाज़ में —बहुत बेहतरीन.

  14. खुशदीप सहगल कहते हैं:

    अनूप जी, लिंक देने के लिए आभार…कल पूरी कहानी आराम के साथ पढ़ूंगा…जय हिंद…

  15. अनूप शुक्ल कहते हैं:

    बांच रहे हैं अनिल यादव की कहानी! शुक्रिया!

  16. Meenu Khare कहते हैं:

    कहानी के अंश बेहतरीन लगे. सार्थक साहित्य के लिंक के लिए धन्यवाद प्रेषित.

  17. जितेन्द़ भगत कहते हैं:

    कहानी की भाषा में बनारसी ठाठ नजर आ रहा है, पढ़नी पड़ेगी।कहानी का वि‍वेचन काफी अच्‍छा लगा।

  18. पुनीत ओमर कहते हैं:

    आपने तो ऐसी जिज्ञासा जगाई है कि अब पढ़े बिना रहा न जायेगा..

  19. मनोज कुमार कहते हैं:

    अनमोल रचना है ये , बाटने के लिए धन्यवाद कुछ सार्थक मिला

  20. JHAROKHA कहते हैं:

    anil yadav ji ki kahanibahut hi achhi lagi aapane kahani kamulyankan bahut hi achha dhang se kiya hai aage bhi intazar rahega.

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