मै बचपन से ही फाइटर रहा हूँ ..ओर मुश्किल समय में मुस्कराना मैंने नेहरु से सीखा है ….बकोल राठोर
ये दोनों इसी व्यवस्था के वे ट्रांसपेरेंट चेहरे है जहाँ दूसरी ओर जीने के बड़े हिस्से पर ताकतवर लोगो के कब्जे की समाज की अप्रत्यक्ष स्वीक्रति की मोहर दिखाई देती है .ये आपने तय करना है के आप गुटनिरपेक्ष स्टेंड का बोर्ड कब तलक हाथ में थामे रहेगे ? (इरोम शर्मीला अस्पताल के बिस्तर पर) |
पोलिश जैसी स्याह किस्मत ! उसने बहुत जुगत लगाकर फीतों को किसी तरह एक दूसरे में फँसा दिया, ठीक उसी तरह जैसे मेरा पाँच साल का बेटा करता है. वक़्त ने उसे जूते चमकाना सिखा दिया है मगर उसे जूते के फीते बाँधना सिखाने वाले पता नहीं कहाँ हैं. |
दो कप मीठी चाय, दो कप काली चाय, कमरे कि चार दिवारी, दोनों के बीच से गुजरती अनछुई मासूम हवा.. आँखों में जाल बुनता विश्वास … तीन घंटे जैसे तीन पल …दोनों सिर्फ एक शाम की तन्हाई बांटना चाहते थे किन्तु दो चेहरों ने बिना किसी मुखोटे के ..जिंदगी का हर वो पन्ना बाँट लिया जिससे वो स्वम भी अनिभज्ञ थे… वो हेरान थे उनके पास इतना जमा था एक दुसरे से बांटने को …जो वह आजतक किसी और से नहीं बाँट पाए . ..जीवन में पड़ी सिलवटों को, हिस्से में आई ठोकरों को, ना मिले मुट्ठी भर आसमान को, जीवन के इंद्र धनुष रंगों को, जिंदगी के कोनो में छुपी ख़ुशी को, दिन के उजाले में देखे सपनों को, विकल्पों के अभाव को, मजबूरियों को, उपलब्धियों को, टिक टिक पर बसी चुनोतियों को,नसिकता पर जम आई धूल को, रोज मुंडेर पर आकर बैठने वाली लालसाओं को, बेबाक कल्पनाओं को, रिश्तों से मिले अपनेपन और उपहास को, जाने -अनजाने में हुए गुनाहों को …बिना किसी लागलपेट के एक दुसरे से बाँट सके … दोनों एक दुसरे को वहां छु सके ..जहाँ अभी तक किसी ने नहीं छुआ था … आत्मा की खामोशी को छुआ और उसे भीतर सहेजा बिना किसी आपेक्षा और उम्मीद के… उस कमरे की हवा पंखुड़ी जैसी हलकी और खुशबूदार थी …मन और आत्मा को एक दुसरे के सामने निर्वस्त्र कर स्त्री -पुरुष के आकर्षण की विवशता की जगह दोनों के बीच इंसानियत का आहान था .. |
Dont leave anything except your foot print ……… |
मेरी आत्मा एक अजाना आर्केस्ट्रा है . मै नहीं जानता कौन से वाध्य यंत्र कौन सी सारंगी ओर वीणा के तार ,नगाड़े ओर ढपलिया मै अपने भीतर बजाता हूँ ओर उनको झंकृत करता हूँ कुल मिलकर जो मै सुनता हूँ वह एक सिम्फनी है …..
कुमार अम्बुज ……..अपनी प्रिय किताब “बुक ऑफ़ डिसकवाईट “को याद करते हुए |
आईने में रोज़ रोज़ जो दिखता है तुमको तुम्हारा, बहुत मुश्किल है लेकिन, उससे बचा कर, अपने उस ध्वस्त व्यक्त से छुपा कर, देखना अगर कभी हाथ आती है, किस ज़बान और किन बोलों में क्या तार और कौन बारह शब्द फुसफुसाती है, आंख में थोड़ा खून लिये पूछना कविता क्या बताती है, सचमुच किसी काम आती है? घिसे रंगों की, लदर-फदर के बोझ, बेमतलब प्रसंगों की, यही होगी दुनिया, कांपती उंगलियां और ‘घन्न-घन्न’ डोलता पंखा, फटे पन्नों की फड़फड़ाती बातें होंगी और सियाह सिर गिराये आहभरी रातें, मालूम है मुश्किल है लेकिन अंधेरे में टटोलकर टोहना, पूछना मोहब्बत से, क्या कविता, क्या है, बोलोगी, बताओगी तुम्हारी सौगातें.. |
“ब्लोगिंग का मतलब सिर्फ अमिताभ बच्चन नहीं”
कुल मिलाकर ब्लॉगिंग सिलेब्रेटी और उस टाइप के लोगों के लिए अपने फैन,ताक लगाकर बैठी मीडिया और न्यूज डेस्क पर बाट जोह रहे चैनलकर्मियों के लिए कुछ टुकड़े और मसाले फेंक देने की जगह है। एक ऐसी जगह जहां से देश का बड़ा से बड़ा अखबार उन टुकड़ों को उठाकर पूरे आधे पन्ने की खबर छाप सके,न्यूज चैनल आधे घंटे की स्पेशल स्टोरी बना सके। उस पर दुनियाभर के एक्सपर्ट के फोनो और चैट लिए जा सकें। यानी बिना हर्रे और फिटकरी लगाए सिलेब्रेटी चोखे तरीके से खबरों में टांग फैला दे। |
ब हर कवि का बेटा अमिताभ बच्चन तो नहीं हो सकता? पिछले बीसेक सालों से ( लगभग वही समय काल जिसमें मेरा/मेरी पीढ़ी का लेखकीय/पाठकीय विकास हुआ है) हम लगातार जन्म शताब्दियां मना रहे हैं। प्रेमचन्द, राहुल सांकृत्यायन, सज़्ज़ाद ज़हीर, सुभद्रा कुमारी चौहान और ऐसे ही तमाम आदमक़द साहित्यकारों की, जिन्होंने आधुनिक हिन्दी-उर्दू साहित्य के लिये बुनियादें भी चुनीं और कंगूरे भी बनाये। बड़े ज़ोर-शोर से कार्यक्रम हुए, पत्रिकाओं के विशेषांक निकले, चर्चा-परिचर्चा, थोड़ी कीच धुलेंड़ी भी और ऐसा लगा कि अब तक जो उनको बिसराये रखा गया, अब सारी कसर पूरी कर ली जायेगी। पर हुआ क्या? जैसी ख़ामोशी उन ख़ास वर्षों के पहले थी…उनके बाद भी कमोबेश बनी ही रही। रामकुमार वर्मा, दिनकर, रांगेय राघव, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल जैसे तमाम दूसरे साहित्यकारों की जन्मशतियां या तो ऐसे ही बीत गयीं या बीत जाने की उम्मीद है। जन्मशती वाले साल तमाम चीज़ें मूर्खों की तरह पलक झपकाते हुए पढ़ी और लगा — …अगले ज़माने में कोई मीर भी था। उस दौरान मंचों से की गयीं दहाड़ें याद हैं और उसके बाद की बेशर्म चुप के हम गवाह हैं। |
सिर्फ पोछा मारने से ही नहीं कार चलाने से भी नॉर्मल डिलिवरी के आसार बढ़ते हैं। डायलॉग तो परफेक्ट था। हालांकि मैं इसका उदाहरण पेश नहीं कर पायी। |
यह बहुत बरस पहले की बात है |
जहां गली के मुहाने पर मिलता है |
तुम्हारा ये शहर क्यों इतना चहक रहा है….कैसे इतना गुल्ज़ार आसमां यूं बरस रहा है…..क्यों इस कुहासे में मेरी याद के रंग और रौशन लग रहे हैं….क्या तुम्हें मालूम…..कि तुम्हारी हर याद के रंग में तुम नज़र आते हो…..ये कभी कभी होने वाली बारिश अब इतनी फुहारें भर रही है कि कभी कभी तो मुझे मेरे दामन का छोर छोटा मालूम पड़ता है…..किसने कहा…कि यादें तस्वीरों में कैद…मासूम लगती हैं….मेरा दिल…काश कोई देख पाता…पता नहीं कितने हज़ार रंग हैं तुम्हारे वहां छिपे….और कितनी मुस्कुराहटें…..ना मालूम कब से दबी ढकी मेरे अंदर….तुम्हारी उसी एक हंसी की मुंतज़िर….वो सुनहरा चमकीला हाईलाईटर मिल जाए….. मैं उन सारी मुस्कुराहटों को दिखाऊं और शायद…ये आसमां भी तुम्हारी उन मुस्कुराहटों के रंग से शर्मा जाए और यूंही बस ढक जाए….जैसे मैं……कोई मौसम तय नहीं….कोई दिन तय नहीं….कोई लम्हा तय नहीं….जिसे मैं कहूं कि तुम्हारा मौसम नहीं….कोई नहीं जानता ….वो हर मौसम सर्द एहसास की तरह जिसमे तुम नहीं….इसलिए ना सर्दी ना गर्मी कोई सितम नहीं नुमायां कर पाया इस ज़हन पर….क्योंकि वहां तो तुम…तुम्हारा मौसम….तुम्हारा एहसास….पता नहीं कौन कमबख्त कहता है….कि यह बारिश का मौसम शायद यादो से घिरने का ही मौसम होता है…. |
नाच के दौरान उसमें जो स्थिर था वो उसकी आँखें थीं। अपना ही नाच खुद देख रही हो जैसे, अलग हटकर।देखते देह को उसके पागलपन से निकलते हुए। दीर्घा में औरों के साथ इस नाच को वो भी उतने ही अविश्वसनीय भाव से देखतीं। हर बार। कब ये नाच उसके पेशे से अलग होकर विशुद्ध अतीन्द्रीय हो जाता था इसे कोई नहीं चिन्हित कर पाया। और यूँ ये एक ऐंद्रिकता का भंवर ही था। देह का ही गान। उसी का उत्सव। पता नहीं ये जगह कौनसी थी। हाँ ये पता था कि ये जगह कौनसी नहीं थी। ये घर,बाज़ार, टाउन हाल, होटल,समारोह-स्थल,मंदिर या ऐसा कुछ नहीं था। ये किसी फिल्म का सेट भी नहीं था। देखने वालों को इससे मतलब नहीं था कि ये कहाँ हो रहा था। वो अपना भूगोल खुद बनाती थी। और यूँ ये कहीं भी हो सकता था। |
आरोप है कि स्त्रीवाद और स्त्री-मुक्ति जैसी धारणाओं की देशी जड़ें नहीं हैं और इसका यहाँ के अतीत, सभ्यता और संस्कृति से लेना-देना नहीं है। यहाँ की आम औरतों का भी इस ‘मुक्ति’ से |
चाँद की परते चाँद की परतें उकेलता रहा और उसकी सारी गिरहें खोलकर… पानी में बहता था, तो उससे पूंछा भी ये कैसे चलता है आसमां की सड़कों पर कभी आधा कभी पूरा तो कभी गुल हो जाता है बूंदों के आईने बनाए और उन एक-एक में चाँद बैठाकर बहा दी सारी पानी में अब दस-दस चाँद हैं मेरे पास अदल-बदल के रोज अब सारों को चखा करता हूं!!! |
“हमारी व्यवस्था जिन्हें इडियट्स कहती है”
समय के साथ शब्दों के अर्थ बदलते हैं किसी का अर्थविस्तार तो किसी का अर्थसंकोच। आज कोई जब बुद्धिजीवी बोलता है तो एक ऐसी छवि बनती है जिसमें पर्याप्त जटिलता, कुटिलता तथा बने बनाए रास्तों पर चलने वाले मुसाफिर जैसे गुण हों। वहीं इडियट का अर्थविस्तार हो गया है। दरअसल यह अर्थविस्तार आश्चर्यचकित नहीं करता है क्योंकि हमारी व्यवस्था कुछ निर्धारित मानदंडो के आधार पर ही लोंगो को इडियट घोषित करती है। लेकिन ये मानदंड कितने विवेकशील हैं महत्वपूर्ण बात यह है। |
ए जिंदगी गले लगा ले ”
कुछ जिंदगी के लिए ही है। ऑफिस का कॉम्पिटिशन, सुबह की जॉगिंग, थिएटर में पॉपकॉर्न टटोलती उंगलियां या फिर सोने के पहले सोचने जैसा कुछ, यही सब मिलकर बनाता है जिंदगी को। हमें इस जिंदगी से तमाम शिकायतें हैं, मगर उन शिकायतों की पूंछ में लिपटी आती हैं तमाम उम्मीदें और उन्हें पूरा करने के लिए जोश। |
इससे तो बेहतर है अनजान लोगों से बतियाया जाए कुछ भी किताबों में घुसा लिया जाए सिर एक के बाद एक चार-पांच फ़िल्में देख डाली जाएं पूरी रात का सन्नाटा मिटाने के लिये टके में जो साथ हो ले ऐसी औरत के साथ काटी जाए दिल्ली की गुलाबी ठंडी शामें गुलमोहर के ठूँठ के नीचे या दोस्तों को बुला लिया जाए मौके-बेमौके दावत पर तुम्हे प्यार करते रहना खुद से डरने जैसा है और डर को भुलाने के लिये जो भी किया जाए सही है। “बैले दे जूं” देखकर पियर के लिखी गयी महेन की कविता |
अतीत के दो पन्ने …… आप ब्लोगों में कुछ तलाशते है या महज़ इसे खुद के उलीचने का माध्यम मात्र मानते है …तो क्या है ब्लॉग ?बौद्धिक ऐयाशी का एक बाय प्रोडक्ट्स ..याभारी भाषा में कहे तो वैचारिक प्रवाह का एक ठिया ……यक्ष प्रश्न है…सच कहूँ ब्लोगिंग गर खुद को उलीचना कहते है …तो कुछ समय बाद हम खुद को उलीचना भूल …..पढने वाले क्या सोचेगे सोचकर लिखते है …पर कौन कितना ओर कैसे उलीचे …कंप्यूटर का जमाना आने वाली नस्लों को इतना कुछ मेटीरियल दे देगा के निजता ओर उसके अधिकार पर लम्बी बहसे होगी …ओर करेक्टर सरटीविकेट पर फेस बुक देख कर मोहर लगेगी….. पर ..क्या है असल ब्लोगिंग ?हरेक के पास जुदा उत्तर है आज जिन दो पन्नो को उठाया है .दोनों का मिजाज़ अलग है ….शायद हर लिखने वाले का एक जायका होता है ….जोशिम की भाषा चौंध भरी नहीं है जिसे अद्दितीय कह कर उससे एक सम्मानित दूरी बन ली जाए …उसमे एक अजीब सा मिश्रण है ..तात्कालिक भावुकता भी है ओर मूड को पकडती कलम भी….एक बानगी देखिये पिछली कलम की सियाही बहुत धुंधली है और इस कीबोर्ड की चमक तेज है। फिर भी मैं अपने भरम का मालिक, समझता हूँ, कि कभी कभी जो नहीं है उसकी सोच का लुत्फ़ है तो सही। माने रोज़ के बही – खाते से तंग दिमाग को कहीं सैर पर ले जा कर बहलाना फुसलाना वगैरह वहैरह। बशर्ते नए – पुराने की बहस अपने आप से चालू न की जाये। दिमाग का बायाँ हिस्सा पुराने की वकालत करे और दायां हिस्सा नए की और आपका मुँह बगैर बोले होंठ हिलाये और बीवी परेशान हो जाये कि पतिदेव का स्वलाप किसी अंदरूनी नए ज़माने की दीमागी बीमारी का इशारा तो नहीं । कह दे माँ क्या देखूं ? वैचारिक यात्रा के कई पड़ाव भी…..जो असमय समय रुक कर सांस लेते है ओर जैसे ठिठका देते है मन को…..अटपटे कपाट एक ऐसी ही रचना है .ज्सिके कई आयाम है कई छोर है … कही से भीतर जा सकते है …… न दिनों…. दूसरा पन्ना जब २२ घंटे की उडान के बाद मुझसे मिलने पहली बार भारत से यहां आईं तो बोलीं ‘इतनी लंबी और पकाऊ फ़्लाईट में तो कोई भी पीने लगे.. सारे पीने वाले जल्दी ही खर्राटे लेने लगे थे!’ वो बोली इट्स ओके ………में वे रंग डालूं एक लेंड्स स्केप -कलेजे में धुआँ-धुआँ सर्दियों का अलाव चलते चलते बकलमखुद से चंद्रभूषण जी का ब्यान शुरू में दो-तीन महीने शहर की एक गरीब बस्ती राजापुर में आधार बढ़ाने के इरादे से संगठन द्वारा शुरू किए गए एक स्कूल में पढ़ाया लेकिन जनवरी 1985 में हिंदू हॉस्टल के सामने एक चक्काजाम के दौरान हुई गिरफ्तारी ने यह सिलसिला तोड़ दिया। बमुश्किल हफ्ता भर जेल में रहना हुआ, लेकिन इतने ही समय में नजरिया बहुत बदल गया। क्रांति अब अपने लिए कोई अकादमिक कसरत नहीं रही। बाहर निकल कर लोगों के बीच काम करना जरूरी लगने लगा। इस दौरान संगठन की एक साथी से इनफेचुएशन जैसा भी कुछ हुआ लेकिन जल्दी ही पता चल गया कि गाड़ी गलत पटरी पर जा रही है। आघात बहुत गहरा था। तीन दिन तेज बुखार में डूबा रहा। फिर मन पर कुछ गहरी खरोचें और हमेशा खोजते रहने के लिए एक अनजाना रहस्यलोक छोड़ कर वह समय कहीं और चला गया। उसका एक ठोस हासिल अलबत्ता रह गया कि छह-सात महीने पहले लोहियाहेड में किसी बौद्धिक कसरत की तरह दिमाग में फूटा कविता का अंखुआ मन के भीतर अपने लिए उपजाऊ जमीन पा गया। लगा कि हर बात बाहर बताने के लिए नहीं होती। कुछ को हमेशा के लिए सहेज कर रखना भी जरूरी होता है। कविता के मायने मेरे लिए आज भी यही हैं। |
इस्स्स्स… ! शायद सबसे पहले कमेन्ट कर रहा हूँ इसलिए नहीं की लिंक मेरा भी है… इसलिए की पिछले कुछ दिनों से ब्लॉग्गिंग से दूर हूँ… और मन में यह चलता रहता था की पता नहीं पढने में क्या चूक हो गयी होगी इन दिनों… किन्तु अब शांति है और फक्र है डॉ. अनुराग पर… इनकी चर्चा लम्बी जरूर होती है लेकिन सरे छांटे हुए लिंक यह ले आये हैं… आज बहुत दिनों बाद अनामदास का ब्लॉग भी अपडेट देख रहा हूँ… अब विनती सिर्फ इतनी है की दूसरी चिठ्ठाचर्चा जल्दी न की जाये… अभी यही काफी है… शुक्रिया डॉ. अनुराग…
महेन जी की कविता की पंग्तियाँ लगभग याद रह जाने वाली होती हैं… और चबा कर कही गयी बात होती है… उनके शब्द भी बड़े कंजूसी से कविता में आते हैं… बैले दे जू का जिक्र दूसरी बार किया गया है यह बेव्लोग पर भी पढ़ी… औ लगभग याद है… गौरव की एक कविता "तुम्हारी वो सहेली कहती है" याद आई… इससे बाद की उनकी दुस्ती कविता "दूसरा प्यार" भी उतना ही प्रासंगिक है… अब अबकी "शराबी की सूक्तियों " पर आधारित लेटेस्ट कविता….. हैरानी यह है की यह तना लोकप्रिय क्यों नहीं है…
narayan narayan
बहुत चुनचुनकर चिट्ठे लाए हैं। कुछ नहीं पढ़े थे सो अब पढ़े।घुघूती बासूती
डॉक्टर साहब अच्छे अच्छे लिंक देने की भरपूर कोशिश करते हैं
बहुत बढ़िया और उम्दा चर्चा
बढियां रहा.
शनादार चर्चा, जानदार लिंक्स.
शनादार चर्चा,
जी शुक्रिया ,तहे दिल से …कुमार अम्बुज जी को पढना मुझे हमेशा से ही अच्छा लगता रहा है ….दूसरी कई नई लिंक देकर आपने उपकार ही किया है …अमिताभ का मतलब …लेख सटीक है लेखक से में सहमत भी हूँ और साधुवाद देती हूँ ..नीरा जी को और अन्य को पढ़ना अभी शेष है ..
यह यात्रा बढिया रही । बधाई
शीर्षक देख कर ही लगा ये डॉ० अनुराग की चर्चा होगी और आई तो वही था….!!मंथन का सार्थक माखन मिल गया इस बार भी… सब कुछ पठनीय और अवश्य पठनीय….!!!
इतने सारे धांसू लिंक जुगाड़ के धर दिये चिट्ठाचर्चा में। जय हो। सुन्दर।
वाह गजब…!छोटी चर्चाओं की कमी आज पूरी हो गई!बढ़िया चर्चा!
nice
अच्छा लगा,लपूझन्ना और ई-स्वामी को यहाँ देख कर खुशी हुई,न जाने चर्चाकार इनसे परहेज करने की कोशिश क्यों करते रहे हैं ?आजकल ब्लॉगिंग से दूर हूँ, पिछले दो दिनों की चर्चा छूट रही थी ।आज अभी जल्दबाजी में पढ़ा, जबकि क्लिनिक की देर हो रही है.. .. कुछ दूसरे चर्चाकारों की तरह ठेलने के बाद क्या एक फोन भी नहीं मार सकते थे ? शाम को दुबारा बाँचना पड़ेगा ! यह भी अच्छा लगा ।
यहाँ भी एप्रूवल का लटका देख कर लग रहा है, इस मँच के दरवाज़े भी मेरे लिये बन्द हो रहे हैं, इति !
बहुत से लिंक इस में पढ़े थे पर फिर भी कुछ छुट गए थे इस बेहतरीन बौद्धिक चर्चा का शुक्रिया
हम तो "उस जानिब" से कुछ और की अपेक्षा में थे…लेकिन एक शानदार संकलन बना है।ई छोटा बक्सा-बक्सा सब कैसे बना लेते हैं एके पोस्ट में?
@मेजर …विंडो लाइव राइटर से लिखी है …उस जानिब की तरह की एक सोच तो है…बस फुरसत की दरकार है पर जोशिम को पढ़कर लगा इसे बांटना चाहिए …यूँ भी हिंदी ब्लॉग में कोई भी पोस्ट चौबीस घंटे ही सांस लेती है …….ऊपर इरोम शर्मीला की तस्वीर तहलका मैगजीन से बिना शुक्रिया कहे ली है……