कल १४ नवम्बर था- “बाल दिवस” या कहें कि जवाहर लाल नेहरू का जन्म दिवस ; जिनके विषय में बाबा नागार्जुन ने लिखा था –
यही हुई है राय जवाहरलाल की
रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की
यही हुई है राय जवाहरलाल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
अमेरिका, चीन और भारत के संबंधों का एक विश्लेषण
अमेरिका और चीन आज दुनिया के दो सर्वाधिक श्क्तिशाली देश हैं। इन दोनों के अंतर्संबंध इतने जटिल हैं कि उनकी सरलता से व्याख्या नहीं की जा सकती। उनके बीच न कोई सांस्कृतिक संबंध है, न सैद्धांतिक, बस शुद्ध स्वार्थ का संबंध है। इसलिए न वे परस्पर शत्रु हैं, न मित्र। इनमें से एक भारत का पड़ोसी है, दूसरा एक नया-नया बना मित्र। पड़ोसी घोर विस्तारवादी व महत्वाकांक्षी है। ऐसे में भारत के पास एक ही विकल्प बचता है कि वह अमेरिका के साथ अपना गठबंधन मजबूत करे। यह गठबंधन चीन के खिलाफ नहीं होगा, क्योंकि अमेरिका भी न तो चीन से लड़ सकता है और लडऩा चाहता है। लेकिन चीन की बढ़ती शक्ति से आतंकित वह भी है और भारत भी। इसलिए ये दोनों मिलकर अपने हितों की रक्षा अवश्य कर सकते हैं, क्योंकि चीन कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो जाए, वह अमेरिका और भारत की संयुक्त शक्ति के पार कभी नहीं जा सकता।
१३ नवम्बर को प्रख्यात हिन्दी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्मदिवस भी था| ठीक विधानसभा की जूतमपैजार के कुछ दिन बाद | मुक्तिबोध मूलतः मराठीभाषी थे, उनके भाई मराठी के जाने माने कवियों में गिने जाते हैं | है न कमाल, एक भाई मराठी का कवि दूसरा हिन्दी का|
सीखिए- सीखिए कुछ तो! वर्चस्व के लडैतो !!
नेट पर इन दिनों देशकाल ने इस अवसर पर मुक्तिबोध सप्ताह की आयोजना की हुई है| इसके अर्न्तगत मुक्तिबोध पर केन्द्रित कई वैचारिक आलेख आप वहाँ समयानुसार पढ़ सकते हैं| स्मरणपूर्वक इस अवसर पर चर्चा के इस मंच पर उनकी एक बहुप्रसिद्ध लम्बी कविता `अँधेरे में’ का एक बहुत छोटा-सा अंश आपको यहाँ पढ़वाने का लोभ संवरण नहीं हो पा रहा –
ज़िन्दगी के…
कमरों में अँधेरे
लगाता है चक्कर
कोई एक लगातार;
आवाज़ पैरों की देती है सुनाई
बार-बार….बार-बार,
वह नहीं दीखता… नहीं ही दीखता,
किन्तु वह रहा घूम
तिलस्मी खोह में ग़िरफ्तार कोई एक,
भीत-पार आती हुई पास से,
गहन रहस्यमय अन्धकार ध्वनि-सा
अस्तित्व जनाता
अनिवार कोई एक,
और मेरे हृदय की धक्-धक्
पूछती है–वह कौन
सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई !
इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से
फूले हुए पलस्तर,
खिरती है चूने-भरी रेत
खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह–
ख़ुद-ब-ख़ुद
कोई बड़ा चेहरा बन जाता है,
स्वयमपि
मुख बन जाता है दिवाल पर,
नुकीली नाक और
भव्य ललाट है,
दृढ़ हनु
कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति।
कौन वह दिखाई जो देता, पर
नहीं जाना जाता है !!
कौन मनु ?
एन डी टी वी (अंग्रेजी )चैनल में हिन्दी की उपयोगिता पर निरर्थक बहस
आज शाम आठ बजे, टी वी चैनल – एन डी टी वी -(अंग्रेजी) में परिचर्चा का एक कार्यक्रम आयोजित था । विषय था –
हिन्दी का मुद्दा।xxx
सभी लोगों ने अंत में एकमत से अंग्रेजी को ही भारत की संपर्क भाषा घोषित किया और कहा की अंग्रेजी से ही भारत का उत्थान होगा और अंग्रेजी ही देश की एकता को सुरक्षित रख सकती है. खुले आम हिन्दी और भारतीय भाषाओं की धज्जिया उडाई गयी । भारतीयता का न ही कोई बोध था, किसी में और न ही हिन्दी के प्रयोग के बारे में कोई जानकारी ही थी उन लोगो के पास. सभी लोगों ने हिन्दी को ही देश की समस्याओ का मूल कारण बताया और इससे जल्द से जल्द निजात पाने का फरमान घोषित कर दिया । वाह रे वाह भारत के बुद्धिजीवी और वाह रे वाह एन डी टी वी चैनल। धन्य हो बरखादत्त .
किरण बेदी को देश का मुख्य सूचना आयुक्त बनाने की मुहिम
निष्पक्ष और निडर पुलिस अधिकारी के तौर पर ख्यात रहीं किरण बेदी को देश का मुख्य सूचना आयुक्त बनाने की मुहिम को और बल मिल गया है। बेदी ने अब खुद सामने आ कर कहा है कि उन्हें यह पद मंजूर करने से कोई एतराज नहीं।……………………..
किरण बेदी से अच्छी सख्सियत नही हो सकती भारत में इस पद को सम्हालने के लिए ।
अगर सरकार को अपनी पुराणी गलतियाँ सुधारनी है तथा सच की थोडी सी भी शर्म है तो तुंरत किरण बेदी को इस पद पर नियुक्त कर दे।
पर इस की उम्मीद कम ही दिखायी पड़ती है , क्योंकि सच की तो कोई कदर ही नहीं है सरकार के घर ।
जो कांग्रेस बेशर्मी से कौडा जैसे नेता को समर्थन देती रही वो सच और ईमान दारी तो चाहती ही नही
रेड कॉरिडोर में कराहता सेकेंड सेक्स
माओवादी संगठनों ने सामाजिक राजनीतिक बदलाव की मुहिम छोड़ कर महिलाओं का बर्बर उत्पीड़न शुरू कर दिया है उत्तर प्रदेश,बिहार झारखण्ड और छतीसगढ़ के सीमावर्ती आदिवासी इलाकों में जहाँ इंसान का वास्ता या तो भूख से पड़ता है या फिर बन्दूक से ,माओवादियों ने यौन उत्पीडन की सारी हदें पार कर दी हैं |माओवादी , भोली भाली आदिवासी लड़कियों को बरगलाकर पहले उनका यौन उत्पीडन कर रहे हैं फिर उन्हें जबरन हथियार उठाने को मजबूर किया जा रहा है वहीँ संगठन में शामिल युवतियों का ,पुरुष नक्सलियों द्वारा किये जा रहे अनवरत मानसिक और दैहिक शोषण बेहद खौफनाक परिस्थितियां पैदा कर रहा है वो चाहकर भी न तो इसके खिलाफ आवाज उठा पा रही है और न ही अपने घर वापस लौट पा रही हैं |इस पूरे मामले का सर्वाधिक शर्मनाक पहलु ये है कि जो भी महिला कैडर इस उत्पीडन से आजिज आकर जैसे तैसे संगठन छोड़कर मुख्यधारा में वापस लौटने की कोशिश करती हैं ,उनके लिए पुलिस बेइन्तहा मुश्किलें पैदा कर दे रही है ।शांति, बबिता, आरती, चंपा, संगीता…ये वो नाम हैं जिनसे चार -चार राज्यों की पुलिस भी घबराती थी। लेकिन आज पीडब्ल्यूजी एवं एमसीसी की ये सदस्याएं, पुरूष नक्सलियों के दिल दहलाने वाले उत्पीड़न का शिकार हैं।

ऐसे प्रसंगों के लेखन और बाज़ार वाले समीकरण पर केन्द्रित एक आलेख कबाड़खाना पर आया है, उसे आप अवश्य बाँचें –
अंतरंग संबंधों पर लेखन : अवधारणा और बाजार
आत्मकथा के आयाम में बहुत चितेरे होते हैं, जो पाठकों को आकर्षित करते हैं, किंतु उससे कहीं अधिक आकर्षित करते हैं समाज और निजी जिंदगी के प्रवाह में डूबते-उतराते रिश्ते। संबंधों की अंतरंगता हर किसी के जीवन के खास पहलू होते हैं। उन संबंधों की याद में लोग भावुक होते हैं, जिंदगी से तृष्णा व वितृष्णा होती है और फिर किसी हवा के झोंके के साथ उससे गाहे-बगाहे सामना भी करना पड़ता है।
पाश्चात्य संस्कृति में पति-पत्नी के रिश्ते की बुनियाद या हकीकत जो भी हो लेकिन भारतीय परिवेश में इसके मायने अहम हैं। साहित्य, फिल्म के अलावा राजनीति की चमचमाती जिंदगी में संबंधों की अपनी अहमियत है और अंतरंग प्रसंगों को चटखारे लेने की परंपरा भी नई नहीं है। यही कारण है कि पत्रकार नंदिता पुरी द्वारा लिखी गई किताब ‘अनलाइकली हीरो : द स्टोरी ऑफ ओमपुरी’ लोकार्पण होने के पहले ही सुर्खियां बटोर रही है और ओमपुरी के बयान के कारण विवादों की चपेट में है। किसी की जिंदगी के महत्वपूर्ण और पवित्र हिस्सों को सस्ते और चटखारे वाली गॉसिप में बदलना किसी विश्वासघात से कम नहीं है।
मेरी उस फेहरिस्त में अनूप शुक्ल जी भी हैं और गुरुदेव समीर लाल जी समीर भी…ये मेरी अपनी पसंद है…ये मेरे अपने आइकन है….मैंने एक प्रण लिया…जिस तरह का स्तरीय और लोकाचारी लेखन मेरे आइकन करते हैं…उसी रास्ते पर खुद को चलाने की कोशिश करूंगा…अगर एक फीसदी भी पकड़ पाया तो अपने को धन्य समझूंगा…धीरे-धीरे ब्लॉगिंग करते-करते मुझे तीन महीने हो गए…इस दौरान दूसरी पोस्ट और टिप्पणियों को भी मुझे पढ़ने का काफी मौका मिला…जितना पढ़ा अनूप शुक्ल जी और गुरुदेव समीर के लिए मन में सम्मान और बढ़ता गया…लेकिन एक बात खटकती रही कि दोनों में आपस में तनाव क्यों झलकता है…या वो सिर्फ मौज के लिए इसे झलकते दिखाना चाहते हैं….क्या ये तनाव ठीक वैसा ही है जैसा कि चुंबक के दो सजातीय ध्रुवों के पास आने पर होता है…जितना इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की, मेरे लिए उतनी ही ये रूबिक के पज्जल की तरह विकट होती गई…जैसा पता चलता है कि समीर जी भी शुरुआत में चिट्ठा चर्चा मंडल के साथ जुड़े रहे….किसी वक्त इतनी नजदीकी फिर दूरी में क्यो बदलती गई…
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चिट्ठा चर्चाओं के ज़रिए उछाड़-पछाड़ के खेल से हिंदी ब्लॉगिंग में राजनीति के बीजों को पनपने ही क्यों दिया जाए…राजनीति किस तरह बर्बाद करती है ये तो हम पिछले 62 साल से देश के नेताओं को करते देखते ही आ रहे हैं..
चर्चा बहुत लम्बी व समय बहुत अधिक हो गया है | इन गंभीर बातों के साथ आपको छोड़ जाने का जी नहीं होता| सो पहले आप श्रीश जी की एक कविता का रसास्वादन करें –
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‘ सोचता हूँ; कितना कठिन समय है, अभाव, परिस्थिति, लक्ष्य…
‘हुंह; सोचने भी नहीं देते, सब मुझसे ही टकराते हैं और घूरते भी मुझे ही हैं..’
समय कम है और समय की मांग ज्यादा,
जल्दी करना होगा..!
‘ओफ्फो..! सबको जल्दी है..कहाँ धकेल दिया..समय होता तो बोलता भी मुझे ही…’इतने संघर्षों में मेहनत के बाद भी..
आशा तो है पर..डर लगता है…
जाने क्या होगा..?
कविता को यहाँ पूरा पढें |
अनंतिम
और सप्ताह में टाईमपास करने की समस्या का निदान काजल कुमार जी के इस कार्टून को देख कर स्वतः ढूँढ लें क्योंकि हमें चर्चा करते हुए पूरे ७ घंटे हो गए हैं | अगले सप्ताह सामना होने तक आपके लिए सर्वमंगल की कामनाओं के साथ विदा लेती हूँ
आओ टाइम पास का नया तरीक़ा दिखाऊं.
(१) – मैं आप से ५.३० घंटे पीछे हूँ
और
(२) – चर्चा भी १५ की सायं लिखी गयी है |
बहुत सुन्दर विविधता लिए हुए !छुट्टी की वजह से समयाभाव के कारण श्रीश जी की कविता मिस कर गया था आपके चिटठा चर्चा के माध्यम से पढ़ ली !
चर्चा सदैव सारगर्भित होती है । चर्चा के बहाने एक तटस्थ समीक्षा हो जाती है तत्कालीन प्रविष्टियों की । आभार ।
आपकी चर्चा हमेशा नये रंग लेकर आती है कविता जी…बेहतरीन हमेशा की तरह!
समयानुकूल एवँ सारगर्भित चर्चा, आज की चर्चाकार धीर गँभीर विषयों को बड़ी सहजता से व्यक्त करने के श्रेय की हकदार हैं ।खुशदीप नॉनसीरियसली तौर पर सीरियस दृष्टि के आलेख देने में सदैव सक्षम रहे हैं..ब्लॉगजगत के इन मोतियों को बिखरते हुये देखना अपने आप में ब्लॉगिंग विरक्तता की स्थिति दो चार होने जैसा है । मन तो मेरा भी उद्वेलित है.. बस लिख न पाया । खुशदीप ने पहल की है, उनकी अपने ऑइकन के प्रति जो भी परिभाषा हो, हमारे बिखरे मोतियों को ब्लॉगजगत के कल्याण के लिये मुलायम पड़ना चाहिये । इस पोस्ट को इस मँच पर लाकर, चर्चाकार ने सकारात्मक रुख का परिचय दिया है ।विरक्तता और शोक की स्थिति में भी, अचपन जी को पचपन की दृष्टि से बच्चों को बधाई देना अनिवार्य लगा । सो, बालदिवस पर एक चलताऊ पोस्ट हाज़िर-ए-नज़र किया था । किंवा सँज्ञान में आने से वँचित रह गया ।
समयानुकूल एवँ सारगर्भित चर्चा, आज की चर्चाकार धीर गँभीर विषयों को बड़ी सहजता से व्यक्त करने के श्रेय की हकदार हैं ।खुशदीप नॉनसीरियसली तौर पर सीरियस दृष्टि के आलेख देने में सदैव सक्षम रहे हैं..ब्लॉगजगत के इन मोतियों को बिखरते हुये देखना अपने आप में ब्लॉगिंग विरक्तता की स्थिति दो चार होने जैसा है । मन तो मेरा भी उद्वेलित है.. बस लिख न पाया । खुशदीप ने पहल की है, उनकी अपने ऑइकन के प्रति जो भी परिभाषा हो, हमारे बिखरे मोतियों को ब्लॉगजगत के कल्याण के लिये मुलायम पड़ना चाहिये । इस पोस्ट को इस मँच पर लाकर, चर्चाकार ने सकारात्मक रुख का परिचय दिया है ।विरक्तता और शोक की स्थिति में भी, अचपन जी को पचपन की दृष्टि से बच्चों को बधाई देना अनिवार्य लगा । सो, बालदिवस पर एक चलताऊ पोस्ट हाज़िर-ए-नज़र किया था । किंवा सँज्ञान में आने से वँचित रह गया ।
श्रीश की कविता बेहद शानदार है …अभिव्यक्ति को एक अमूर्त रूप देती है ….. एन डी टीवी पर हुई बहस पूरे समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करती ..वहां केवल कुछ लोगो का जमावडा था ओर ये उनके निजी विचार …..यधिपी इस कार्यकर्म के कुछ भागो का मै प्रशंसक हूँ पर हमेशा हर बात से सहमत नहीं ….मुक्तिबोध इस पन्ने पर …फिर एक बार ये पन्ना गरिमामय हुआ …..चूँकि आपने आत्मकथा की चर्चा की है .इसलिए कहता हूं के रचनाकार पन्नो पे कुछ ओर दिखाई देता है ओर असल जीवन में कुछ ओर ….हम सब क्यों किसी व्यक्ति विशेष को मानवीय गुण दोष से ऊपर घोषित कर देते है ….ओम पूरी पर बेवजह बवाला मचा रहे है ….. एक साहब हमेशा खुन्नस खाए रहते थे ….कभी हंसते नहीं थे …..सड़क पे चलते तो गाड़ी वालो को गरियाते …स्कूटर पे चलते तो पैदल वालो को……..खुन्नस की इत्ती बुरी आदत थी के रिश्तेदारों के ब्याह पे . फोटोग्राफरों से विशेष आग्रह होता के भाई जब खीचो तो उन्हें फ्रेम से बाहर रखना …. क्रिकेट मैच होता तो क्रिकेट को गरियाते कहते साला क्रिकेट देश को पीछे ले जा रहा है….अंग्रेजी फिल्मो को गाली देते ..अंग्रेजी फिल्मे गंदी ओर अश्लील होती है ,अख़बार में एक दिन गांधी की आलोचना आ गयी तो अख़बार फेंक दिया के गांधी को गाली देना आजकल फैशन है …..(ये बात ओर है के उन्होंने आज तक अपने जीवन में स्कूल की किताबो से इतर कभी कोई किताब गांधी के बारे में खरीद कर नहीं पढ़ी .)… .सारा दिन टी .वी के आगे बैठे रहते के टी वी सीरियल कूड़ा है .उनका दामाद आजकल क्रिकेट के बल्लो का व्योपारी है , उनका छोटा लड़का प्लानेट एम् की दुकान खोलकर बैठा है ओर आजकल उनकी छोटी लड़की टी वी सीरियल के प्रोडक्शन हाउस में जॉब कर रही है हाय जीवन कितना विरोधाभास से भरा है ना ?खैर छोडिये…..एक अच्छी चर्चा के लिए बधाई
बहुत अच्छी और सारगर्भित चर्चा। हर बार की तरह समय और श्रम का प्रचुर निवेश किया गया है। प्रतिभा का तो कहना ही क्या। बधाई स्वीकारें। ब्लॉग के माध्यम ने हमारी उत्सवधर्मिता को और मुखर कर दिया है। यह बालदिवस पर आयी पोस्टों ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया। मैं भी इसके मोहपाश से बच न सका था। 🙂
क्या जी कविताजी! आप इतने गम्भीर मुद्दे एकदम एक ही चर्चा में उछाल देती हैं कि मुझ जैसे नासमझ टिप्पणीकार को कठिनाई होती है कि किस मुद्दे को चुने और किसे छोडें…खैर"पर इस की उम्मीद कम ही दिखायी पड़ती है , क्योंकि सच की तो कोई कदर ही नहीं है सरकार के घर ।जो कांग्रेस बेशर्मी से कौडा जैसे नेता को समर्थन देती रही वो सच और ईमान दारी तो चाहती ही नही"किरण बेदी जी जैसे ईमानदार व्यक्ति को कौन नेता सराहेगा? आज सुबह ही मधुश्री काबरा जी , सम्पादक ‘समाज प्रवाह’ से बात हो रही थी जिसके दौरान उन्होंने कहा कि ‘ईमानदारी’ शब्द को शब्दकोश से निकाल देना चाहिए। मैं ने कहा कि ‘समाज प्रवाह’ के अगले अंक में इसपर संपादकीय का इंतेज़ार रहेगा:)बहुत अच्छी चर्चा के लिए बधाई। समीरजी [काला पत्थर:)] और अनूपजी [गोरा पहाड:)] दोनों को प्रणाम ब्लागजगत को एक और किचकिच से बचाने के लिए॥ उद्दण्ड्ता के लिए क्षमा मांगते हुए। आखिर कभी कभी बडों से मौज लेने का हक हम को भी है ना 🙂
कविता जी-सारगर्भित चर्चा रही-आभार
बेहतरीन चर्चा। मज़ा आया।
बहन कविता वाचक्नवी जी!सन्तुलित और सार्थक चर्चा के लिए बधाई!
विचारोत्तेजक!
ओह उम्दा और बेहतरीन चर्चा…एक साथ कई सरोकार इस चर्चा में..लग रहा था कि आदरणीया कविता जी स्वयं सम्मुख वार्ता कर रही हों…इस विशेष शैली और 'सर्वाधिक' को समेटने की कला को प्रणाम…
नेहरु और मनु के समीकरण में एक विचित्र सा विरोधाभास चमत्कारी है. मुक्तिबोध के बोध की गहराई रोमांचित कराती है कि उन्होंने इमरजेंसी की नंगों की बरात एक दशक से अधिक अवधिपूर्व ही देखली/ दिखादी थी.महाराष्ट्र विधानसभा के चपत-समारोह को भावुकता के बजाय इस तरह भी देखने की ज़रुरत है कि इस बहाने एक उद्दंड नेता ने हिन्दी को जानबूझकर अपमानित कराया है….. उकसावा भी आपराधिक कृत्य है. आत्मकथा और जीवनियाँ तरह तरह के कारणों से लिखी/लिखाई जाती हैं. भारतीय समाज यह जानता है कि दाम्पत्येतर कामसंबंध सदा रहते हैं/ रहे हैं.उन्हें वह इतना अस्वाभाविक नहीं मानता कि व्यक्ति के अन्य चारित्रिक गुणों को भूल जाए. इतने पर भी उसे इन संबंधों का महिमामंडन स्वीकार नहीं है क्योंकि ऐसा करने से इस समाज का नींवाधार -परिवार – खतरे में पड़ता दीखने लगता है. इसलिए इन नातों को सब जानते बूझते यही चाहते हैं कि कुछ तो पर्देदारी बनी रहे. आखिर को आदमी सोशल जानवर है जी!एक हिसाब से ओमपुरी जी बड़े मासूम हैं क्योंकि उनके ऐसे नातों की चर्चा से समाज पर कोई गहरा असर होने की संभावना नहीं है. कुछ दिन चर्चे होंगे…. इतने में किताब के कुछ संस्करण बिक जाएँगे. भला किसी के पक्षकार बन कर बुद्धिव्यवसायी लोग 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना' क्यों हुए जा रहे हैं! माओवादी संगठन पूरी तरह भटक चुके हैं…….और किसी भी संवेदनशील रचनाकार के लिए उनकी पक्षधरता इतिहास की वस्तु हो चुकी है. अत्यंत सधी हुई और सटीक चर्चा के लिए अभिनन्दन!!
बाबा नागार्जुन और मुक्तिबोध को इस तरह याद करना अच्छा लगा